सोमवार, 18 मार्च 2013

कल्याणकारी सरकारों का सच :बजट की भूलभुलैया कब तक


        कल्याणकारी सरकारों का सच :बजट की भूलभुलैया कब तक
  किसी व्यक्ति , कंपनी या सरकार के बजट का एक ही अर्थ है कि आय कितना है और व्यय कितना है . यदि आय आय अधिक और व्यय कम है तो जिंदगी आराम से चलती रहती है . यदि आय कम है तो अधिक खर्च के दो रास्ते हैं – आय बढाएं या उधार लें  और यदि साख नहीं है तो गिरवी रख कर कर्ज लें अथवा घर का सामान बेचें .राष्ट्र के सम्बन्ध में सामान बेचने का अर्थ है सरकारी कम्पनियाँ बेचना और प्राकृतिक संसाधन बेचना जैसे खदानें , नदियाँ ,बंदरगाह, वन  ,भूमि आदि .इससे सरकार कि आय और कम होती जाती है .व्यक्ति ,कम्पनी और सरकार ,सभी स्तर पर यदि कर्ज लेने का उद्देश्य आय में वृद्धि करना है ,तब तो भविष्य में कर्ज चुका दिए जाते हैं , स्थिति अच्छी होती जाती है परन्तु यदि कर्ज का उद्देश्य अनावश्यक व्यय बढ़ाना है जैसे विवाह या दिखावे के लिए मंहगे और फालतू सामान खरीदना जिनकी भरपाई उस आय में संभव नहीं होती है तो व्यक्ति क्रमशः तनाव में फंसता जाता है और आत्महत्या तक करने को बाध्य  हो जाता है .राष्ट्र के सम्बन्ध में स्थिति में थोड़ा  अंतर होता है . इसमें शासक लूट-खसोट से से अपना काम जब तक चलता है , चलाता है . परन्तु कुव्यवास्थाएं बढ़ते जाने से किसी भी समय उसका शासन समाप्त हो जाता है . उसकी हत्या और कंगाली तक  भी संभव है. लोकतान्त्रिक  व्यवस्थों में कोई स्थायी राजा नहीं होता है . सरकारें ,मंत्री , अधिकारी आते -जाते रहते हैं और अपनी ताकत के अनुसार लूट – भ्रष्टाचार द्वारा अपना खजाना भरते रहते हैं.लोगों को मूर्ख बनाने के लिए जब तक संभव होता है . वे अतिरिक्त नोट छापकर तथा वस्तुओं के भाव बढ़ाकर काम चलाते जाते है जिससे मुद्रा का मूल्य कम होता जाता है और मंहगाई बढ़ती  जाती है , विदेश व्यापार बुरी तरह नष्ट होने लगता है , भुगतान असुंतलन पैदा हो जाता है जिससे सरकार की आय तीव्रता से घटने लगती है . इसका घातक प्रभाव भावी पीढ़ी को उठाना पड़ता है .
    जब सरकार किसी भी प्रकार से धन जुटाने में सक्षम नहीं हो पाती है तो व्यय कम करने के लिए मुख्य रूप से तीन प्रभाव पड़ते हैं . प्रथम प्रभाव कर्मचारियों की संख्या पर पड़ता है . खाली पद भरे नहीं जाते हैं , अनेक पद समाप्त कर दिए जाते हैं तथा अनेक नियुक्तिययां  काम चलाऊ ढंग से अस्थायी रूप से की जाती हैं . इससे नौकरी में शेष बचे लोगों पर काम का बोझ बढ़ जाता है , वे तनाव ग्रस्त और बीमार होने लगते हैं , जनता  को उन सेवाओं का लाभ उचित रूप से नहीं मिल पता है . बेरोजगारी बढ़ती जाती है . लोगों की आय कम होने से उनकी क्रय शक्ति कम होती जाती है अर्थात मंदी  आती जाती है , उद्योग-धंधे चौपट होने लगते हैं . कुल मिलाकर कम आय – बेरोजगारी – मंदी – मुद्रास्फीति – मंहगाई का दुष्चक्र चल पड़ता है और बढ़ता जाता है .
   धन की कमी का दूसरा प्रभाव लोक सेवाओं पर पड़ता है . सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य ,रक्षा , पुलिस , न्याय-व्यवस्था आदि के व्यय कम करती जाती है . इससे लोग मंहगे विद्यालय , अस्पताल आदि के चक्कर में फंसते जाते हैं , क़ानून-व्यवस्था नष्ट होती जाती है .जनता –कर के दम पर  नेता अपनी सुरक्षा तो कमांडो लगाकर कर लेते हैं परन्तु जनता को भय और आतंक के वातावरण में जीने के लिए बाध्य करते जाते हैं .
   प्रारम्भ में तो लोकतांत्रिक सरकार अमीरों से नोट और गरीबों से वोट लेने के लिए अमीरों को ठेके तथा गरीबों को अनेक सब्सिडी देती रहती है , परन्तु जब अंतिम अवस्था आने लगती है तो गरीबों को मिलने वाली सब्सिडी धीरे – धीरे कम होती जाती है . सोनिया – मनमोहन की  सरकार ने पहले पेट्रोल पर और अब डीज़ल पर सब्सिडी समाप्त कर दी है , गैस पर कम कर दी है . आने वाले समय में किसानों और गरीबों को दी जाने वाली बिजली ,खादों – खाद्यानों पर भी सब्सिडी  हटानी पड़ेगी तथा समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने की योजना भी समाप्त करनी होगी . यदि वर्तमान दिशा में देश की अर्थ व्यवस्था चलती रही तो अगले ५ वर्षों में ये हालात पैदा हो सकते हैं .
     ग्रीस , यूरोपीय संघ का सदस्य है , उसे मित्र देश सहायता करते जा रहें हैं पर कब तक करेंगे , परन्तु भारत का तो विश्व में एक भी मित्र नहीं है , भारत का क्या होगा अभी जनता को सोचने कि फुर्सत नहीं है . यह ध्यान रहे कि वर्तमान स्थिति का मुख्य कारण अधिकाँश पदों पर अयोग्य और भ्रष्ट  व्यक्तियों की नियुक्ति है जो  अपने हितों के लिए देश को निर्ममता से संघर्ष और असुरक्षा  की ओर  धकेलते जा रहे हैं.





बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

क्या होगा हड़तालों से

                                 क्या होगा हड़तालों से 
दिनांक 20 एवम 21 फरवरी को देश व्यापी हड़ताल हो रही है . अनेक स्थानों पर जीवन अस्त -व्यस्त हो गया है . ट्रेन रोकने से अनेक यात्री बीच में फंस जाते हैं . यातायात के साधन बंद होने से समाज स्थिर हो जाता है . जिसे अस्पताल जाना हो , या उसी दिन परीक्षा हो ,जहां जाना आवश्यक हो तो वह व्यक्ति क्या करे ? अपना दुखड़ा किससे  कहे , कौन उसकी मदद करेगा ?कर्मचारी अधिकारी तो हड़ताल करके , अपनी ताकत दिखाकर कुछ वेतन बढ़वा लेंगे , परन्तु आटो चालकों को इससे क्या लाभ होगा , पता नहीं है . यह निश्चित है की सरकार  उनको कोई धन लाभ नहीं देगी, और यदि उनकी आय बढती है अर्थात किराया बढ़ता है , तो यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन्ही के हितो के विपरीत होगा , जिनके साथ मिलकर वे हड़ताल कर रहे  हैं .
       हड़ताल मुख्यतः कमुनिस्ट दल करवा रहे हैं . इनसे पूछो की क्या  किसी कमुनिस्ट देश में हड़ताल हो सकती है ?30 वर्षों तक ये बंगाल पर कब्ज़ा जमाए रहे . प्रदेश पर कर्जे का बोझ लाद दिया और उसे सबसे पीछे धकेल दिया . श्रमिक संघ के नाम पर ये सरकारी और निजी संस्थानों में हड़तालें करवाकर सारी  व्यवस्थाएं  नष्ट करते गए . यदि पहले के कर्मचारी अच्छी प्रकार काम करते , तो आज भी कर्मचारियों पर भरोसा किया जाता . परन्तु आये दिन हडतालों के कारण  , काम में बाधाओं के कारण ही  कार्यालयों का मशीनीकरण और निजीकरण  होता गया .अब तो नियुक्तियों में  योग्यता का मापदंड ही समाप्त कर दिया गया है . अतः यदि कार्यालय में कोई अच्छा कर्मचारी होता है , तो सारा  बोझ उसी पर डाल दिया जाता है . चपरासी से मंत्री तक सभी अपना पेट और स्वार्थ देख रहे हैं देश की चिंता किसी को नहीं है . हड़तालें कोई परिवर्तन नहीं ला सकती हैं . इनसे किसी नेता  की निजी हानि तो हो नहीं रही है , अतः हड़ताल एक दिन चले या अधिक  किसी कोई फर्क नहीं पड़ता है . 
     देश में  एफ़ डी  आई लाने  पर व्यवसायी हड़ताल कर रहे थे . मैंने उनसे कहा की जब उद्योग बंद हो रहे थे, उनके कर्मचारी बेरोजगार हो रहे थे , आपने कभी आवाज नहीं उठाई क्योंकि आपको सामान बेचकर लाभ कमाने से मतलब है , तब आपने क्यों नहीं सोचा की आज विदेशी माल देशी माल को  विस्थापित कर रहा है , कल विदेशी व्यापारी आपको भी किनारे करेंगे . पर जैसे पहले कहा है की प्रत्येक व्यक्ति अपना और सिर्फ अपना ही हित साधने में लगा हुआ है . इस व्यवस्था में आज एक का तो कल दूसरे का और फिर धीरे- धीरे सबका हाल बुरा होने वाला है जैसा टोकरे मे बंधे  हुए मुर्गों का होता है .
     जहां तक सरकार की बात है तो क़ानून की मनमानी व्याख्या करने और उसे तोड़ने का सार्वभौमिक अधिकार उसी को है . पहले उचित बातों  को न सुनना  , समस्याओं की अनदेखी करते जाना ,   हड़तालें करवाना  और फिर डरकर बलशाली के सामने झुक जाना , कमजोर को धक्का दे देना , उसकी आदत बन गई है , सीधी  सी बात है की यदि किसी का हक़ बनता है तो उसे पहले ही दे दो , और नहीं बनता तो बाद में भी मत दो , दूसरी व्यवस्था करो तो हड़ताल की नौबत ही क्यों आएगी / इन नेताओं ने अंग्रेजों से एक ही बात तो सीखी है कि 'फूट डालो और राज्य करो ' . इसी सिद्धान्त  के अनुसार अधिकाँश  विभागों में एक जैसे कामों  के लिए अलग - अलग पदनामों से कर्मचारी रखकर  उन्हें छोटे -बड़े वर्गों में बाँट दिया है ताकि  वे आपस में मिल न पाएं और सरकार के लोग मनमानी करते  रहें   जब तक वे कुर्सी पर काबिज हैं  . इसीलिए न्यायालयों में कर्मचारियों  और सरकरों के मध्य लाखों मुक़दमे लंबित हैं . जब तक देश में सबको अपना समझने वाली सरकार नहीं बनती , देश में सुव्यवस्था की आशा करना व्यर्थ है .




सोमवार, 7 जनवरी 2013

बंगलादेश में राष्ट्रपति शासन

                                      बंगलादेश में राष्ट्रपति शासन   (1975 )
  बंगलादेश में राष्ट्रपति शासन प्रो डी खत्री द्वारा फरवरी १९७५ में पत्र 'दिनमान ' में प्रकाशन के लिए भेजा गया था जो नहीं छप सका .रद्दी कागजों में यह पुनः मिला इस पुराने पत्र को पाठकों के समक्ष ३६ वर्ष पश्चात प्रस्तुत करने का उद्देश्य है , इसकी सत्य भविष्य वाणी जो बंगलादेश की राजनीति दिशा के लिए की गई थी और जिसे कोई महत्त्व नहीं दिया गया था बंगलादेश की आजादी के बाद मुजीबुर्रहमान पहले प्रधान मंत्री बने .उन्होंने सभी विपक्षी दलों को प्रतिबंधित कर दिया था तथा एक नया संविधान बनाकर वे बंगलादेश के राष्ट्रपति बन गए तथा सारी शक्तियां अपने हाथ में समेट लीं भारत की प्रधान मंत्री इंदिरागांधी समेट अनेक राष्ट्राध्यक्षों ने इसे बंगला देश की दूसरी आजादी कहा तथा उन्हें बधाइयाँ दी जाने लगीं डा खत्री ने इस पत्र के माध्यम से चेतावनी देनी चाही कि उनके साथी उनकी हत्या कर सकते हैं तथा इसका अंत मिलिट्री शासन में होगा और छः माह बाद वही हुआ पत्र कि याह भविष्यवाणी भी सही हुई कि रूस में कमुनिस्ट शासन का अंत उनके आतंरिक विस्फोट से होगा परंतु यह अनुमान गलत निकला कि वहां पर कम्युनिस्टों का शासन दो -ढाई सौ साल बाद नष्ट होगा , वह ७६-७७ वर्ष संसदीय ही समाप्त हो गया
       संसदीय प्रणाली से अध्यक्षीय प्रणाली में परिवर्तन करना क्रांति का पर्याय नहीं हो सकताइस प्रकार का परिवर्तन तानाशाही का प्रतीक भी नहीं है परन्तु एक ही द का शासन होना तानाशाही हैइस पद्धति में एक ही व्यक्ति जो द का अध्यक्ष होता है राज्य की सभी शक्तियों ( व्यवस्थापिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका ) का नियंत्रण करता हैबंगलादेश की नवीन पद्धति के अनुसार सरकारी कर्मचारी भी सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के सदस्य हो सकते हैं .यह इस तथ्य का पर्याय मात्रा है कि दल के सदस्य ही सरकारी कर्मचारी हो सकते हैंविधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का एकीकरण होने से राष्ट्र के अध्यक्ष को असीम अधिकार प्राप्त हो जाते हैंयदि हम उसे निरंकुश शासक कहें तो अधिक उपयुक्त होगा.अधिकार सुखद परिणाम के द्योतक नहीं हैं अधिकार शब्द कर्तव्य का ही रूपांतर है अधिकारों कि व्यापकता का अर्थ है कर्तव्यों कि व्यापकताअतः निरंकुश शासक के कर्तव्य भी असीम हो जाते हैं .व्यक्ति सीमित होता है ,वह असीमित कर्तव्यों का पालन कभी नहीं कर सकेगा
      बंगलादेश कि वर्तमान शासन पद्धति में मुजीब का प्रभाव इतना अधिक है कि देश का कोई भी व्यक्ति उनकी आलोचना नहीं कर सकेगाबंगबंधु सर्व व्यापी नहीं हैं उन्हें उस समूह के व्यक्तियों का विश्वास करना होगा जो उन्हें सदैव घेरे रहेंगे .देश कि वर्तमान समस्याओं को देखते हुए स्वार्थी लोगों का एक नया वर्ग जन्म लेगा कुछ दिनों ताक ये लोग अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं परन्तु शीघ्र ही वे अपने अधिकारों द्वारा दलित वर्ग का शोषण प्रारंभ कर देंगेनिरंकुश शासन में षड्यंत्रों की सम्भावना भी बढ़ जाती हैयह कार्य उन लोगों के लिए अधिक सुगम होता है जो शासक दल के निकट रहते हैं .कालांतर में ये लोग षड्यंत्रों में रूचि लेने लगेंगे , शासन मुजीब का हो या उनके उत्तराधिकारियों काइन लोगों की महत्वाकांक्षा अधिक अधिकार पाने की ओर प्रवृत होगी की कर्तव्यों का पालन करने मेंइससे जो राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होगी उसका अंत सैनिक तानाशाही में होगा
       एक दलीय शासन पद्धति साम्यवादी देशों में फलीभूत हो रही हैनिश्चित रूप से यह पद्धति संक्रमण कल में उपयुक्त है , स्थायी भी अपेक्षा कृत अधिक हैइसका मुख्य आधार दल की दार्शनिक विचारधारा हैदल का सदस्य केवल उस व्यक्ति को बनाया जाता है जो कार्य एवं विचारों द्वारा साम्यवाद में आस्था प्रदर्शित करता हैपरन्तु ये विचार रूढ़ीवादिता को जन्म देंगे .उदहारण स्वरूप वैदिक एवं उसके पश्चात् बौद्ध धर्म का विकास चरम सीमा ताक हुआ था .समय के साथ ही लोग धर्म को कर्तव्य मान कर पंथ मानने लगे और कुछ विशेष क्रियाओं के करने में ही उनके कर्तव्य की इतिश्री होने लगीवे रूढ़ी वादी हो गए और उनका पतन हो गयाअतः साम्यवाद का अंत भी अराजकता में , जैसा कि कार्ल मार्क्स ने कहा है , होकर सैनिक तानाशाही में होगा परन्तु इसमें पर्याप्त समय लगेगा इसके विपरीत बंगलादेश की राजनीति में द का पतन कभी भी हो सकता है
   'बंगला देश अब्सर्वर ' ने लिखा है , बंगबंधु चाहे जिस भी रूप में देश का नेतृत्व करें , वे बंग बन्धु ही हैं , वह राष्ट्र पिता हैं ',मैं इससे सहमत नहीं हूँ .एक पिता अपने पुत्र को जन्म देने के बाद उसका उपयोग अपनी इच्छा से नहीं कर सकतायहाँ एक व्यक्ति की इच्छा का प्रश्न हैदेश की सीमा में बहुत लोग रहते हैं जिन्होंने देश के लिए त्याग किया हैउन सब को किसी एक व्यक्ति की इच्छा से चलने के लिए बाध्य करना मानवता की हत्या होगी फिर वह इच्छा चाहे राष्ट्र-पिता की ही होयदि श्री मुजीब इस पद्धति को संक्रमण काल के रूप में एक निश्चित अवधि तक लागू करके पुनः प्रजातंत्र की स्थापना करते हैं तो निश्चय ही वे एक राष्ट्र के जनक हैं , श्रद्धा के पात्र हैं .इतिहास उनकी भूरी भूरी प्रशंसा करेगायदि यह स्थायित्व ग्रहण करती है तो यह क्रांति नहीं भ्रान्ति होगी और इतिहास इसके परिणामों का दोष भी मुजीब के सिर पर मढ़ देगा

सड़क और शिक्षा

सड़क

नेता-अफसर कर रहे ,जम कर भ्रष्टाचार ,
ऊपर से स्थिर दिखें,अन्दर बढ़ता भार .
अन्दर बढ़ता भार,सड़क पर जब वे जाते ,
मिटटी-गिट्टी,अत्थर-पत्थर,सब उड़ जाते.
लिंक रोड भोपाल खूब मोटी बनवाएँ ,
दौड़ें जितने भ्रष्ट, सड़क पर आंच न आए .१.

शिक्षा

छोटे- मोटे क्लर्क हुए , शिक्षा के खेवन हार ,
शिक्षक-प्राचार्य देखते , दूसरे कारोबार .
दूसरे कारोबार , कराते अफसर सारे,
पढाई- लिखाई से दूर , हुए शिक्षक बेचारे .
युद्ध पर जाती फ़ौज, परीक्षा ऐसे होती,
शिक्षा का उद्योग, उगलता हीरे-मोती.२.