शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

लोकतात्रिक शिक्षा


                  
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                                      लोकतात्रिक शिक्षा

                                         कुमार ब्रह्मदत्त
प्राचीन भारत में काशी में राजा ब्रम्ह्दत्त राज्य करते थे . उनका पुत्र था कुमार ब्रम्ह्दत्त . कुमार की प्रारंभिक शिक्षा काशी में हुई . वहां पर उच्च शिक्षा की सुविधा थी परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में तक्षशिला का नाम बहुत प्रसिद्द था . अतः राजा ने विचार किया कि कुमार को वहीँ भेजना चाहिए . उस समय कुमार की आयु १६ वर्ष थी . पिता ने उसे १००० मुद्राएँ देकर तक्षशिला भेज दिया . वहां पहुँच कर कुमार ने आवश्याक जानकारी प्राप्त की और गुरूजी के  मिलने का समय ज्ञात किया और उनके पास जा पहुंचा . आचार्य जी को देखकर उसने जूते उतारे , सामान को किनारे रखा और उनकी वंदना करके हाथ जोड़कर खड़ा हो गया .आचार्य जी ने देखा कि बालक थका हुआ है . उन्होंने उसके रुकने एवं भोजन की व्यवस्था करके विश्राम करने के लिए कहा . भोजन के बाद कुमार ने कुछ देर विश्राम किया फिर उनके सम्मुख उपस्थित हुआ और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया . आचार्य जी ने उससे पूछा तो उसने बताया कि वह काशी से आया है और उनसे विद्या ग्रहण करना चाहता है . उस समय गुरुकुल एवं विश्वविद्यालयों में एक व्यवस्था थी कि विद्यार्थी शुल्क दे और दूसरी थी विद्यार्थी वहीँ काम करे और पढ़े . कुछ निर्धन विद्यार्थी विद्याध्ययन पूर्ण करने के बाद में गुरु दक्षिणा अथवा वांछित शुल्क देने का वचन देकर भी पढ़ते थे . गुरु जी ने उससे पूछा कि क्या वह शुल्क लाया है . उसने कहा, ‘हाँ’ और हजार मुद्राओं की थैली उन्हें समर्पित कर दी . वह उनके साथ ही रह कर विद्याध्ययन करने लगा .                     
   एक दिन कुमार गुरु जी के साथ नदी स्नान के लिए जा रहा था .रास्ते में उसने देखा कि धुले हुए तिल सूख रहे हैं . उसे तिल बहुत अच्छे लगते थे . उसने एक मुट्ठी तिल उठाकर खा लिए . दूसरे दिन पुनः उसने एक मुट्ठी तिल खा लिए . एक वृद्धा ने तिल सुखाने के लिए धूप में रखे थे . उसने पहले दिन कुछ नहीं कहा पर दूसरे दिन उसे यह अच्छा नहीं लगा . जब तीसरे दिन भी उसने मुट्ठी भर तिल लिए और मुंह में डाले, वह बिफर उठी और जोर से चिल्लाने लगी . आचार्य जी साथ में थे . उन्होंने आश्चर्य से उसे देखा और चिल्लाने का कारण  पूछा . उसने कुमार द्वारा तीन दिन से तिल लेने की बात कही . आचार्य जी ने उससे कहा कि वह क्रोध न करे, दुखी न हो, उसे तिलों का मूल्य मिल जायगा . परन्तु वह महिला इससे संतुष्ट नहीं थी . उसने मूल्य लेने से इन्कार कर दिया और कुमार को आचरण सिखाने के लिए कहा . गुरु जी ने उसी के सामने अपने अन्य दो शिष्यों से कहा कि वह कुमार के दोनों हाथ पकड़ लें . फिर गुरूजी ने उसे पीठ पर तीन डंडे मारे  और उसे पुनः वैसा आचरण न करने का  उपदेश दिया . कुमार ब्रह्मदत्त ने पूरे अनुशासन का पालन करते हुए उनसे विद्या प्राप्त की और काशी लौट आया .
                  जीवक
  जीवक राजगृह ( मगध की राजधानी, वर्तमान राजगीर ) की एक गणिका का पुत्र था . उसके जन्म लेने पर उसे मरने के लिए कूड़े के ढेर पर फेंक दिया गया था . सौभाग्य से उस पर सम्राट बिम्बिसार के पुत्र कुमार अभय की दृष्टि पड़ गई .कुमार ने उसके जीवन की रक्षा की तथा अपनी देख रेख में उसके भरण – पोषण का प्रबंध कर दिया . राजगृह में शिक्षा पूर्ण करने के बाद कुमार ने उसे उच्च शिक्षा के लिए तक्षशिला भेज दिया . जीवक ने वहां पर एक विश्व प्रसिद्द आचार्य जी के के साथ रहकर सात वर्ष में चिकित्सा शास्त्र का सफलता पूर्वक अध्ययन किया . वैद्य का प्रमाणपत्र देने के पूर्व आचार्य जी ने उससे कहा, “तुम एक फावड़ा लेकर तक्षशिला में एक योजन ( लगभ १२ किमी ) की दूरी तक चारों ओर जाओ और तुम्हे कोई ऐसी वनस्पति मिले जिसका उपयोग चिकित्सा में न होता हो, उसे उखाड़ कर मेरे पास ले आओ .” आचार्य जी के आदेश पर वह दूर –दूर तक घूम आया परन्तु उसे एक भी ऐसा पौधा नहीं मिला जिसका उपयोग चिकित्सा शास्त्र में न होता हो . उसकी योग्यता से पूर्ण संतुष्ट होकर आचार्य ने उसे वैद्य की उपाधि प्रदान कर दी और स्वतन्त्र रूप से चिकित्सा करने की अनुमति दे दी . आचार्य ने उसे कुछ धन भी दे दिया ताकि वह तक्षशिला से राजगृह तक जा सके .
    साकेत पहुँचने तक जीवक का धन खर्च हो गया . उसे अभी बहुत दूर जाना था . अतः धन की आवश्यकता थी . वह वहीं  साकेत में रुक गया ताकि कुछ धन अर्जित कर ले . उसे ज्ञात हुआ कि एक सेठ की पत्नी बहुत दिनों से सिर के रोग से अस्वस्थ है और वैद्य उसे ठीक नहीं कर पा रहे हैं . जीवक ने उसका इलाज प्रारम्भ किया . उसने घी में कुछ जड़ी- बूटियाँ उबालीं और उसे महिला को नाक से पिला दिया . उसकी चिकित्सा से सेठ की पत्नी नीरोग हो गई . सेठ उससे बहुत प्रसन्न हुआ और उसका बहुत उपकार माना . उसने जीवक को १६००० मुद्राएँ दीं तथा एक रथ , घोड़े और दो सेवक भी दिए . जीवक ने राजगृह लौट कर उसे कुमार अभय को दे दिया क्योंकि उसीने उसका पालन-पोषण किया था और उसकी शिक्षा का प्रबंध किया था . उन दिनों सम्राट बिम्बिसार भगंदर रोग से ग्रस्त थे जो आज भी लाइलाज बीमारी मानी जाती है . जीवक ने उनकी चिकित्सा की और स्वस्थ कर दिया . उसने अनेक असाध्य रोगों को ठीक किया जिससे उसकी ख्याति बहुत दूर तक फ़ैल गई . वाराणसी के एक सेठ ने उसे अपने पुत्र की चिकित्सा के लिए बुलाया जिसकी आंतें उलझ गई थीं . जीवक ने शल्य चिकित्सा द्वारा उसका पेट चीर कर आंतें ठीक कीं और पुनः पेट सिल दिया और चिकित्सा के लिए दवाएं दीं जिससे वह ठीक हो गया . इस सेठ ने भी जीवक को १६००० मुद्राएँ दीं .उज्जैन का राजा उदयोत पीलिया ग्रस्त था . उसने सम्राट बिम्बिसार से अनुरोध किया कुछ दिनों के लिए वे जीवक को उज्जैन भेज दें .औषधियुक्त घी से जीवक ने उन्हें भी स्वस्थ कर दिया . राजा ने उसका बहुत सत्कार किया तथा उसे बहुत से उपहार एवं बहुमूल्य वस्तुएं देकर विदा किया . जीवक ने महात्मा बुद्ध को भी कब्ज रोग से मुक्त किया था . भारतीय चिकित्सा शास्त्र में जीवक का नाम आज लगभग २५०० वर्ष बाद भी बहुत श्रद्धा से लिया जाता है .     
   

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