अनिवार्य एवं नि :शुल्क बाल शिक्षा
स्कूल व्यवस्था नष्ट न करें
अनिवार्य एवं नि :शुल्क बाल शिक्षा का अधिनियम इतनी विसंगतियों से युक्त है. अधिनियम में प्रवेश , व्यवस्था , प्रबंधन , शिक्षक , पाठ्यक्रम आदि सभी अवधारणाएँ अस्पष्ट हैं .प्रदेशों के शिक्षा अधिकारी और नेता उनकी मनमाने ढंग से व्याख्या कर रहे हैं.म.प्र. में २५% की दर से १०००० स्थान नि:शुल्क शिक्षा के लिए निर्धारित हुए . इन पर लाटरी के द्वारा प्रवेश दिया गया . ५००० सीटें रिक्त रह गईं . इन्हें भरने के लिए प्रवेश तिथि १६ जून तक बढ़ा दी गई है . प्रदेश में हजारों शिक्षकों , प्राध्यापकों ,चिकित्सकों , इंजीनियरों , पुस्त्काल्याधाक्षों , क्रीडा अधिकारिओं ,लिपिकों आदि के पद वर्षों से रिक्त पड़े हैं . सरकार को उनकी कोई चिंता नहीं है क्योंकि किसी भी कार्य को अच्छी प्रकार करने की उसकी कभी मंशा ही नहीं रही है . निजी विद्यालयों पर दबाव डाला जा रहा है .यह दबाव उन शिक्षा अधिकारियो के माध्यम से डाला जा रहा है जो प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था बर्बाद कर चुके हैं . कुछ विद्यालय अपवाद हो सकते हैं परन्तु अधिकांश विद्यालयों की हालत और प्रतिष्ठा इतनी है कि मजदूरी एवं घरों में झाड़ू -पोंछा लगाकर गुजारा करने वाले लोग भी उधर झांकना तक पसंद नहीं करते हैं . यदि सरकारी स्कूल अच्छे होते तो निजी स्कूलों का अभिभावकों पर दबाव न होता .शिक्षा के नए अधिनियम के मानदंडों पर १०% सरकारी स्कूल भी खरे नहीं उतरेंगे , परन्तु इन नियमों के माध्यम से निजी स्कूलों का जम कर शोषण और भ्रष्टाचार करने से इनकार नहीं किया जा सकता है.
आज सरकारी एवं निजी स्कूलों अथवा महाविद्यालयों में परिवार , समाज, देश जैसी कोई अवधारणा शेष नहीं रह गई है . एक ही विचार बचा है कि क्या करें, कैसे पढ़ें कि अधिकतम धन कमाया जा सके . कुछ निजी विद्यालय इस उद्देश्य कि पूर्ति भी कर रहे हैं . इसलिए अभिभावक अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े . अब सरकारें उन्हें भी नष्ट करने पर तुल गई हैं . निजी विद्यालय प्रवेश दे रहे हैं ,इस आशा से कि सरकार उन गरीब बच्चों की फ़ीस देगी . सरकार फीस देगी या नहीं देगी , देगी तो कितनी देगी और कितनी घूंस लेकर देगी यह तो बाद में पता चलेगा . वर्तमान समस्या तो उन गरीब बच्चों की है जिन्हें जैसे भी हो अच्छे विद्यालयों में प्रवेश मिल गया है . प्रथम समस्या उनकी पुस्तकों - कापिओं ,स्टेशनरी ,ड्रेस तथा आवागमन कि सुविधा देने की है . यदि अभिभावक ये व्यवस्थाएं करने में सक्षम होंगे तो वे गरीब कैसे माने जाएँगे ?.उस स्थिति में उनका गरीबी का राशन कार्ड भी छीन लिया जायगा .गरीब के नाम पर दिया गया प्रवेश भी रद्द किया जा सकता है . अतः अभिभावक ऐसी गलती कभी नहीं करेंगे. जब ये प्रदेश सरकारें पहली से बारहवी तक के छात्रों को मुफ्त में ड्रेस , किताबें , सायकिले , भोजन , चप्पलें आदि दे सकती है , तो इन गरीब, थोड़े से बच्चों के लिए कंजूसी क्यों करना चाहती हैं ? यह उनका दायित्व है और उन्हें ही पूरा करना होगा . जिन बच्चों के प्रवेश विलम्ब से होंगे , उनका पिछड़ा हुआ कोर्स पूरा करवाने का दायित्व भी इन कल्याणकारी सरकारों का है , उनके अफसरों का है जो बड़ी लगन से उनकी अच्छी शिक्षा के लिए जुटे हुए हैं . यदि ऐसा नहीं किया गया तो गरीब बच्चों और उनके अभिभावकों में तनाव उत्पन्न हो जायगा जो बहुत घातक होगा . यदि सरकारों का सारा श्रम इन बच्चों का बोझ निजी विद्यालयों पर डालने का है , तो अपनी आर्थिक क्षति पूर्ति तो वे अन्य बच्चों के अभिभावकों से जबरन कर लेंगे . पर पढ़ाई का क्या होगा ? कक्षा में शिक्षक क्या एक चौथाई बच्चों की उपेक्षा करते हुए शेष बच्चों को पढाएंगे या अच्छे बच्चों की उपेक्षा करके , जो ढेर सारी फीस दे रहे हैं , कमजोर बच्चों के पीछे पड़े रहेंगे और अपना सिर धुनेंगे. यदि सरकार इन बच्चों के साथ भी सरकारी बच्चों जैसा व्यव्हार करेगी , वे बिना ड्रेस के आयेंगे ,तो प्रबंधन उनका क्या कर लेगा ? जो नहीं पढ़ पाएंगे ,होम वर्क नहीं कर पाएंगे , शिक्षक बेचारे उनका क्या कर लेंगे ? जो टेस्ट में फेल हो जाएंगे या टेस्ट देंगे ही नहीं अथवा परीक्षा ही नहीं देंगे , उन्हें किस नियम के तहत अगली कक्षा में जाने से रोका जा सकेगा . सरकारी नौकर तो झूठे रिकार्ड बनाने में माहिर हैं , क्या इन निजी विद्यालयों के शिक्षकों एवं प्रबंधन को भी उसी रास्ते पर धकेला जायेगा जिस पर सरकारी स्कूल चल रहे हैं ? क्या इसे देख कर ऐसा नहीं लगता कि देश में शिक्षा के जो थोड़े से केंद्र बचे हैं ,ये सरकारें उन्हें भी नेस्त -नाबूत करके छोड़ेंगी .
डा. ए. डी.खत्री
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