बंगलादेश में राष्ट्रपति शासन (1975 )
बंगलादेश में राष्ट्रपति शासन प्रो ए डी खत्री द्वारा फरवरी १९७५ में यह पत्र 'दिनमान ' में प्रकाशन के लिए भेजा गया था जो नहीं छप सका .रद्दी कागजों में यह पुनः मिला । इस पुराने पत्र को पाठकों के समक्ष ३६ वर्ष पश्चात प्रस्तुत करने का उद्देश्य है , इसकी सत्य भविष्य वाणी जो बंगलादेश की राजनीतिक दिशा के लिए की गई थी और जिसे कोई महत्त्व नहीं दिया गया था । बंगलादेश की आजादी के बाद मुजीबुर्रहमान पहले प्रधान मंत्री बने .उन्होंने सभी विपक्षी दलों को प्रतिबंधित कर दिया था तथा एक नया संविधान बनाकर वे बंगलादेश के राष्ट्रपति बन गए तथा सारी शक्तियां अपने हाथ में समेट लीं । भारत की प्रधान मंत्री इंदिरागांधी समेट अनेक राष्ट्राध्यक्षों ने इसे बंगला देश की दूसरी आजादी कहा तथा उन्हें बधाइयाँ दी जाने लगीं । डा खत्री ने इस पत्र के माध्यम से चेतावनी देनी चाही कि उनके साथी उनकी हत्या कर सकते हैं तथा इसका अंत मिलिट्री शासन में होगा और छः माह बाद वही हुआ पत्र कि याह भविष्यवाणी भी सही हुई कि रूस में कमुनिस्ट शासन का अंत उनके आतंरिक विस्फोट से होगा परंतु यह अनुमान गलत निकला कि वहां पर कम्युनिस्टों का शासन दो -ढाई सौ साल बाद नष्ट होगा , वह ७६-७७ वर्ष संसदीय ही समाप्त हो गया ।
संसदीय प्रणाली से अध्यक्षीय प्रणाली में परिवर्तन करना क्रांति का पर्याय नहीं हो सकता । इस प्रकार का परिवर्तन तानाशाही का प्रतीक भी नहीं है परन्तु एक ही दल का शासन होना तानाशाही है । इस पद्धति में एक ही व्यक्ति जो दल का अध्यक्ष होता है राज्य की सभी शक्तियों ( व्यवस्थापिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका ) का नियंत्रण करता है । बंगलादेश की नवीन पद्धति के अनुसार सरकारी कर्मचारी भी सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के सदस्य हो सकते हैं .यह इस तथ्य का पर्याय मात्रा है कि दल के सदस्य ही सरकारी कर्मचारी हो सकते हैं । विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का एकीकरण होने से राष्ट्र के अध्यक्ष को असीम अधिकार प्राप्त हो जाते हैं । यदि हम उसे निरंकुश शासक कहें तो अधिक उपयुक्त होगा.अधिकार सुखद परिणाम के द्योतक नहीं हैं अधिकार शब्द कर्तव्य का ही रूपांतर है अधिकारों कि व्यापकता का अर्थ है कर्तव्यों कि व्यापकता । अतः निरंकुश शासक के कर्तव्य भी असीम हो जाते हैं .व्यक्ति सीमित होता है ,वह असीमित कर्तव्यों का पालन कभी नहीं कर सकेगा।
बंगलादेश कि वर्तमान शासन पद्धति में मुजीब का प्रभाव इतना अधिक है कि देश का कोई भी व्यक्ति उनकी आलोचना नहीं कर सकेगा । बंगबंधु सर्व व्यापी नहीं हैं उन्हें उस समूह के व्यक्तियों का विश्वास करना होगा जो उन्हें सदैव घेरे रहेंगे .देश कि वर्तमान समस्याओं को देखते हुए स्वार्थी लोगों का एक नया वर्ग जन्म लेगा कुछ दिनों ताक ये लोग अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं परन्तु शीघ्र ही वे अपने अधिकारों द्वारा दलित वर्ग का शोषण प्रारंभ कर देंगे । निरंकुश शासन में षड्यंत्रों की सम्भावना भी बढ़ जाती है । यह कार्य उन लोगों के लिए अधिक सुगम होता है जो शासक दल के निकट रहते हैं .कालांतर में ये लोग षड्यंत्रों में रूचि लेने लगेंगे , शासन मुजीब का हो या उनके उत्तराधिकारियों का । इन लोगों की महत्वाकांक्षा अधिक अधिकार पाने की ओर प्रवृत होगी न की कर्तव्यों का पालन करने में । इससे जो राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होगी उसका अंत सैनिक तानाशाही में होगा
एक दलीय शासन पद्धति साम्यवादी देशों में फलीभूत हो रही है । निश्चित रूप से यह पद्धति संक्रमण कल में उपयुक्त है , स्थायी भी अपेक्षा कृत अधिक है । इसका मुख्य आधार दल की दार्शनिक विचारधारा है । दल का सदस्य केवल उस व्यक्ति को बनाया जाता है जो कार्य एवं विचारों द्वारा साम्यवाद में आस्था प्रदर्शित करता है । परन्तु ये विचार रूढ़ीवादिता को जन्म देंगे .उदहारण स्वरूप वैदिक एवं उसके पश्चात् बौद्ध धर्म का विकास चरम सीमा ताक हुआ था .समय के साथ ही लोग धर्म को कर्तव्य न मान कर पंथ मानने लगे और कुछ विशेष क्रियाओं के करने में ही उनके कर्तव्य की इतिश्री होने लगी । वे रूढ़ी वादी हो गए और उनका पतन हो गया । अतः साम्यवाद का अंत भी अराजकता में , जैसा कि कार्ल मार्क्स ने कहा है , न होकर सैनिक तानाशाही में होगा परन्तु इसमें पर्याप्त समय लगेगा इसके विपरीत बंगलादेश की राजनीति में दल का पतन कभी भी हो सकता है ।
'बंगला देश अब्सर्वर ' ने लिखा है , बंगबंधु चाहे जिस भी रूप में देश का नेतृत्व करें , वे बंग बन्धु ही हैं , वह राष्ट्र पिता हैं ',मैं इससे सहमत नहीं हूँ .एक पिता अपने पुत्र को जन्म देने के बाद उसका उपयोग अपनी इच्छा से नहीं कर सकता । यहाँ एक व्यक्ति की इच्छा का प्रश्न है । देश की सीमा में बहुत लोग रहते हैं जिन्होंने देश के लिए त्याग किया है ।उन सब को किसी एक व्यक्ति की इच्छा से चलने के लिए बाध्य करना मानवता की हत्या होगी फिर वह इच्छा चाहे राष्ट्र-पिता की ही हो। यदि श्री मुजीब इस पद्धति को संक्रमण काल के रूप में एक निश्चित अवधि तक लागू करके पुनः प्रजातंत्र की स्थापना करते हैं तो निश्चय ही वे एक राष्ट्र के जनक हैं , श्रद्धा के पात्र हैं .इतिहास उनकी भूरी भूरी प्रशंसा करेगा । यदि यह स्थायित्व ग्रहण करती है तो यह क्रांति नहीं भ्रान्ति होगी और इतिहास इसके परिणामों का दोष भी मुजीब के सिर पर मढ़ देगा ।
बंगलादेश में राष्ट्रपति शासन प्रो ए डी खत्री द्वारा फरवरी १९७५ में यह पत्र 'दिनमान ' में प्रकाशन के लिए भेजा गया था जो नहीं छप सका .रद्दी कागजों में यह पुनः मिला । इस पुराने पत्र को पाठकों के समक्ष ३६ वर्ष पश्चात प्रस्तुत करने का उद्देश्य है , इसकी सत्य भविष्य वाणी जो बंगलादेश की राजनीतिक दिशा के लिए की गई थी और जिसे कोई महत्त्व नहीं दिया गया था । बंगलादेश की आजादी के बाद मुजीबुर्रहमान पहले प्रधान मंत्री बने .उन्होंने सभी विपक्षी दलों को प्रतिबंधित कर दिया था तथा एक नया संविधान बनाकर वे बंगलादेश के राष्ट्रपति बन गए तथा सारी शक्तियां अपने हाथ में समेट लीं । भारत की प्रधान मंत्री इंदिरागांधी समेट अनेक राष्ट्राध्यक्षों ने इसे बंगला देश की दूसरी आजादी कहा तथा उन्हें बधाइयाँ दी जाने लगीं । डा खत्री ने इस पत्र के माध्यम से चेतावनी देनी चाही कि उनके साथी उनकी हत्या कर सकते हैं तथा इसका अंत मिलिट्री शासन में होगा और छः माह बाद वही हुआ पत्र कि याह भविष्यवाणी भी सही हुई कि रूस में कमुनिस्ट शासन का अंत उनके आतंरिक विस्फोट से होगा परंतु यह अनुमान गलत निकला कि वहां पर कम्युनिस्टों का शासन दो -ढाई सौ साल बाद नष्ट होगा , वह ७६-७७ वर्ष संसदीय ही समाप्त हो गया ।
संसदीय प्रणाली से अध्यक्षीय प्रणाली में परिवर्तन करना क्रांति का पर्याय नहीं हो सकता । इस प्रकार का परिवर्तन तानाशाही का प्रतीक भी नहीं है परन्तु एक ही दल का शासन होना तानाशाही है । इस पद्धति में एक ही व्यक्ति जो दल का अध्यक्ष होता है राज्य की सभी शक्तियों ( व्यवस्थापिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका ) का नियंत्रण करता है । बंगलादेश की नवीन पद्धति के अनुसार सरकारी कर्मचारी भी सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के सदस्य हो सकते हैं .यह इस तथ्य का पर्याय मात्रा है कि दल के सदस्य ही सरकारी कर्मचारी हो सकते हैं । विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का एकीकरण होने से राष्ट्र के अध्यक्ष को असीम अधिकार प्राप्त हो जाते हैं । यदि हम उसे निरंकुश शासक कहें तो अधिक उपयुक्त होगा.अधिकार सुखद परिणाम के द्योतक नहीं हैं अधिकार शब्द कर्तव्य का ही रूपांतर है अधिकारों कि व्यापकता का अर्थ है कर्तव्यों कि व्यापकता । अतः निरंकुश शासक के कर्तव्य भी असीम हो जाते हैं .व्यक्ति सीमित होता है ,वह असीमित कर्तव्यों का पालन कभी नहीं कर सकेगा।
बंगलादेश कि वर्तमान शासन पद्धति में मुजीब का प्रभाव इतना अधिक है कि देश का कोई भी व्यक्ति उनकी आलोचना नहीं कर सकेगा । बंगबंधु सर्व व्यापी नहीं हैं उन्हें उस समूह के व्यक्तियों का विश्वास करना होगा जो उन्हें सदैव घेरे रहेंगे .देश कि वर्तमान समस्याओं को देखते हुए स्वार्थी लोगों का एक नया वर्ग जन्म लेगा कुछ दिनों ताक ये लोग अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं परन्तु शीघ्र ही वे अपने अधिकारों द्वारा दलित वर्ग का शोषण प्रारंभ कर देंगे । निरंकुश शासन में षड्यंत्रों की सम्भावना भी बढ़ जाती है । यह कार्य उन लोगों के लिए अधिक सुगम होता है जो शासक दल के निकट रहते हैं .कालांतर में ये लोग षड्यंत्रों में रूचि लेने लगेंगे , शासन मुजीब का हो या उनके उत्तराधिकारियों का । इन लोगों की महत्वाकांक्षा अधिक अधिकार पाने की ओर प्रवृत होगी न की कर्तव्यों का पालन करने में । इससे जो राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होगी उसका अंत सैनिक तानाशाही में होगा
एक दलीय शासन पद्धति साम्यवादी देशों में फलीभूत हो रही है । निश्चित रूप से यह पद्धति संक्रमण कल में उपयुक्त है , स्थायी भी अपेक्षा कृत अधिक है । इसका मुख्य आधार दल की दार्शनिक विचारधारा है । दल का सदस्य केवल उस व्यक्ति को बनाया जाता है जो कार्य एवं विचारों द्वारा साम्यवाद में आस्था प्रदर्शित करता है । परन्तु ये विचार रूढ़ीवादिता को जन्म देंगे .उदहारण स्वरूप वैदिक एवं उसके पश्चात् बौद्ध धर्म का विकास चरम सीमा ताक हुआ था .समय के साथ ही लोग धर्म को कर्तव्य न मान कर पंथ मानने लगे और कुछ विशेष क्रियाओं के करने में ही उनके कर्तव्य की इतिश्री होने लगी । वे रूढ़ी वादी हो गए और उनका पतन हो गया । अतः साम्यवाद का अंत भी अराजकता में , जैसा कि कार्ल मार्क्स ने कहा है , न होकर सैनिक तानाशाही में होगा परन्तु इसमें पर्याप्त समय लगेगा इसके विपरीत बंगलादेश की राजनीति में दल का पतन कभी भी हो सकता है ।
'बंगला देश अब्सर्वर ' ने लिखा है , बंगबंधु चाहे जिस भी रूप में देश का नेतृत्व करें , वे बंग बन्धु ही हैं , वह राष्ट्र पिता हैं ',मैं इससे सहमत नहीं हूँ .एक पिता अपने पुत्र को जन्म देने के बाद उसका उपयोग अपनी इच्छा से नहीं कर सकता । यहाँ एक व्यक्ति की इच्छा का प्रश्न है । देश की सीमा में बहुत लोग रहते हैं जिन्होंने देश के लिए त्याग किया है ।उन सब को किसी एक व्यक्ति की इच्छा से चलने के लिए बाध्य करना मानवता की हत्या होगी फिर वह इच्छा चाहे राष्ट्र-पिता की ही हो। यदि श्री मुजीब इस पद्धति को संक्रमण काल के रूप में एक निश्चित अवधि तक लागू करके पुनः प्रजातंत्र की स्थापना करते हैं तो निश्चय ही वे एक राष्ट्र के जनक हैं , श्रद्धा के पात्र हैं .इतिहास उनकी भूरी भूरी प्रशंसा करेगा । यदि यह स्थायित्व ग्रहण करती है तो यह क्रांति नहीं भ्रान्ति होगी और इतिहास इसके परिणामों का दोष भी मुजीब के सिर पर मढ़ देगा ।