सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

मुख्य मंत्री की कूटनीति


शह और मात का खेल


म. प्र. के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह का सविनय सत्याग्रह उपवास का आयोजन शह और मात का अनोखा खेल है . यह म.प्र. में भाजपा और कांग्रेस , भाजपा और भाजपा तथा म.प्र.एवं केंद्र और केंद्र में कांग्रेस तथा भाजपा के मध्य बिछाई गई चौसर का खेल है जिसमें अभी तक चतुर सुजान शिवराजसिंह ने म.प्र. में भाजपा तथा कांग्रेस दोनों के विरुद्ध आसान विजय दर्ज कर ली है .इस खेल का आनंद लेने के लिए इसके विभिन्न पक्षों को समझ लेना उचित होगा . म.प्र. की गद्दी से दिग्विजय सिंह को बेदखल करके मुख्य मंत्री बनी उमा भारती को पता ही न चल सका और उन्हें गद्दी से ही नहीं भाजपा से बाहर निकालकर शिवराज सिंह चौहान ने म.प्र. का निष्कंटक राज्य प्राप्त कर लिया और एक-एक विरोधी को या तो अपने पक्ष में कर लिया या उसकी शक्ति का हरण वैसे ही कर लिया जैसे बाली शत्रु की शक्ति का हरण कर लेता था .इतने शक्तिशाली और चतुर सामंत से मुक्ति का एक ही मार्ग है ,उसकी स्तुति करके उसमे अहम् उत्पन्न करना , प्रशंसा कर के ऊँचे शिखर पर चढ़ा देना और नीचे कांटे बिछा देना ताकि वह उनमें उलझ जाये . यदि मुख्य मंत्री हड़ताल पर बैठ जाये , हड़ताल लम्बी चलने पर उसका स्वास्थ्य गिरता जाये तो उसे किसके आदेश पर पुलिस जबरन उठा कर ले जाएगी और कौन डाक्टर जबरदस्ती उसका उपवास तुडवा पायेगा ? यदि श्री चौहान उपवास पर बैठ जाते तो यही स्थिति उत्पन्न हो जाती और जान बचाने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा त्यागकर भागना पड़ता . उन्होंने अपने किसी साथी को इसकी भनक ही नहीं लगने तथा जितनी फुर्ती से तम्बू में गए , उससे अधिक उर्जा से बाहर निकल आए . उन्हें घेर कर भजन करने वाले ताकते ही रह गए. उधर कांग्रेस के नेता जो उनके उपवास का विरोध करके व्यापक प्रदर्शन का अवसर पाने को लालायित हो रहे थे , टापते रह गए . संभव है उन्होंने अपना गुस्सा परस्पर चर्चा करके महामहिम राज्यपाल और प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह पर निकाल लिया हो , खुल्लमखुल्ला तो कुछ कर नहीं सकते .
दिल्ली में महान राजनीतिग्य सोनिया जी विराजमान हैं . संभव है उन्हीं के आदेश पर प्रधान मंत्री ने चौहान जी को दिल्ली बुलवाया हो . वे २० फरवरी को मोंटेक सिंह अहलुवालिया से चर्चा करेंगे . अगले दिन से केंद्र का बजट सत्र प्रारम्भ हो रहा है . स्वाभाविक है बजट में म.प्र. की मांगो को पारित करवाने का आश्वासन दिया जा सकता है जिसमें संसद में भाजपा को सहयोग देने केलिए कहा जायेगा अर्थात उस पर जे. पी सी. की मांग छोड़कर बजट सत्र में भाग लेने के लिए दबाव बनाया जायेगा . यदि कृषकों के लिए केंद्र ने राशि स्वीकृत भी की तो म.प्र. को आगामी वर्ष में मिलने वाली किसी अन्य मद की राशि को कम किये जाने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता . जो लोग यह मान कर बैठे हैं की राज्यपाल के द्वारा संविधान के उल्लंघन का उल्लेख करने पर शिवराज मान गए , उन्होंने श्री चौहान को इतना अल्प बुद्धि कैसे मान लिया , वही जाने.
जहाँ तक गरीब किसानों के हित की बात है तो उनका मुख्य मंत्री से उतना ही सम्बन्ध है जितना एक रंक का राजा से होता है . वे किसानों को अच्छे बीज और अच्छी खाद तथा पर्याप्त बिजली देने की चर्चा भूल कर भी नहीं करते हैं जिससे उनका वास्तविक भला होगा . वे इससे भयभीत दिखते हैं कि पिछले आन्दोलन कि विपरीत दूसरे आन्दोलन में किसान -संघ अपने ट्रेक्टर -ट्रालियों से कहीं उनका किला ही न घेर लें . इसके साथ ही मुख्य मंत्री पर अपने मंत्रियों , पक्ष-विपक्ष के विधायकों , बड़े -बड़े अफसरों का दबाव भी होगा जो कृषि -भूमि के मालिक हैं और किसानों के नाम पर केंद्र से मुफ्त में मिले रुपयों में उनकी हिस्सेदारी भी तय होगी . किसानों के नाम पर राजनीती करने वाले मुख्य मंत्री अन्य लोगों के साथ तो ऐसा बर्ताव कर रहे हैं जैसे वे उनके राज्य में ही न हों . बेचारी गरीब नर्सों कि मांग नहीं मानी , उनके आन्दोलन को एस्मा लगाकर दबा दिया गया और स्वयं कलेक्टर -सचिवों सहित आन्दोलन को उद्यत . महीनों क्या वर्षों से भोपाल कि सड़कें खुदवा रखी हैं , मुख्या सड़क तक आने के लिए ४०-५० फुट कच्चा रास्ता भी नहीं बनाते . महाविद्यालयों के अनेक प्राध्यापकों को युक्तिकरण के नाम पर दूर- दूर शहरों में फेंक दिया .७-८ महीनों से उनका वेतन बंद करवा रखा है जैसे वे अन्य अफसरों कि भांति घूंस खा कर गुजारा कर रहे होंगे. सेमस्टर सिस्टम को जानबूझ कर ऐसे लागू करवाया कि म. प्र. के हजारों छात्रों का एक वर्ष बर्बाद हो गया . उन्हें क्षतिपूर्ति देने का नाम ही नहीं ले रहे हैं . भोपाल के गाँधी मेमोरिअल चिकित्सा महाविद्यालय में अनुदान बंद करके कैंसर जैसे विभागों में पी जी कक्षाएं ही बंद करवा दीं .राज्य के किसी विभाग में न तो पर्याप्त कर्मचारी हैं , न सामान है . और तो और अनिवार्य शिक्षा के अंतर्गत निजी विद्यालयों में गरीब बच्चों के प्रवेश के लिए पिछले दो वर्षों से कोई नियम ही नहीं बना सके है , उसमें कौन सा पैसा लग रहा था ! इन सब में एक ही कमी है कि इन लाभों को प्राप्त करने वालों में कोई विधायक नहीं है , कोई आई ए एस , कोई आई पी एस स्तर का अधिकारी नहीं है .

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डा . ए. डी खत्री ,
संपादक , रजतपथ ,भोपाल

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

न्यायालयों का अस्तित्व कब तक


न्यायालयों का अस्तित्व तभी तक रहता है जब तक वे न्याय करने में सक्षम होते हैं . अंग्रेजों के आने के पूर्व भारत में कानून की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई थी . काजिओं को कोई वेतन नहीं मिलता था . विवादग्रस्त व्यक्तियों के शुल्क से उनके खर्चे चलते थे .जो व्यक्ति अधिक धन देता था उसके पक्ष में निर्णय हो जाता था . एक नगर काजी ने एक नर्तकी को गाने के लिए बुलवाया . उसे पूर्व में नृत्य के लिए पैसे नहीं मिले थे . अतः उसने आने से इनकार कर दिया . उसे पकड्वाकर लाया गया और उसका सिर कलम कर दिया गया . लोग अपनी व्यथा किससे कहते ? इसलिए जब अंग्रेजों ने अपने कोर्ट प्रारंभ किये तो लोगो ने उसे शीघ्र स्वीकार कर लिया और भारतीय न्याय व्यवस्था समाप्त हो गई . आज भारतीय न्यायालय एक चौराहे पर खड़े हैं . यदि वे उचित मार्ग का चयन नहीं कर सके तो न्यायालयों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा .
भारत में विभिन्न न्यायालयों में ढाई करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं . यदि एक मुकदमें में न्यूनतम दो व्यक्तियों को लें तो ५ करोड़ से अधिक लोग न्याय के लिए भटक रहे हैं . हमारे न्यायालय इन्हें न्याय देने में सक्षम नहीं हैं , इसे स्वीकार करने के अलावा हमारे पास क्या विकल्प है? इससे यह भी स्पष्ट होता है की भारत में अपराध तो जम कर हो रहे हैं , अभियुक्त भी हैं परन्तु अपराधी नहीं हैं . यदि अपराधी होते तो उन्हें सजा भी मिलती . न्याय का यह सिद्धांत कोई बुरा नहीं है कि ९९ अपराधी भले ही छूट जाएँ परन्तु एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए . इसलिए १०० में से ९९ अपराधियों को छोड़ दिया जाता है , चाहे वे पैसे और अच्छे वकीलों के कारण न्यायालय से छूट जाएँ , उन्हें पुलिस छोड़ दे या फिर पुलिस पकडे ही नहीं . जो निर्णय होते भी हैं , उन्हें न्याय कहा जा सके , यह भी आवश्यक नहीं है . अधिकांश प्रकरणों में तथा कथित सरकार के लोग गैर कानूनी कार्य करते हैं जैसे पुलिस पर दबाव डालना , गवाहों को परेशान करना , दोषी नेता , अफसर के विरुद्ध मुक़दमे कि अनुमति न देना , मुक़दमे को ठीक से प्रस्तुत न करना , निर्णय आने के बाद उस पर अमल करने में हील - हवाला करना आदि . ऐसे अधिकांश प्रकरणों में हमारे न्यायालय कुछ नहीं कर पाते हैं . आज जो कुछ हो रहा है , अपराध बढ़ रहे हैं , भ्रष्टाचार हो रहा , मंहगाई बढ़ रही है या आतंकवाद बढ़ रहा है , उसके लिए हमारी न्याय -व्यवस्था ही उत्तरदाई है .
१९७५ में इंदिरा गाँधी का चुनाव इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अवैध करार दे दिया था . पद से हटने के स्थान पर उन्होंने आपात काल लगा दिया , मनमाने ढंग से उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश कि नियुक्ति कर दी , विपक्षियों को जेलों में ठूंसकर यातनाएं दी , उनकी ओर से न्यायालय में स्पष्ट बयान दिया गया कि आपातकाल में लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं है ( वे सरकार अर्थात सत्तारूढ़ दल कि दया पर जीवित रह सकते हैं ), न्यायालयों ने उनका क्या कर लिया ? आज सी वी सी थामस कह रहें हैं कि ( मान लिया मैं भ्रष्ट हूँ ) जब भ्रष्टाचारी मंत्री हो सकता है तो वह सी वी सी क्यों नहीं हो सकते ? कल यदि वह यह कहेंगे कि भ्रष्ट न्यायाधीश हो सकते हैं तो वे अपना पद क्यों छोड़ें और सरकार , जिसने चुनकर उन्हें कुर्सी सौंपी है, कह दे कि वह पद नहीं छोड़ रहा है, तो न्यायालय के पास उसे हटाने का क्या उपाय है ? उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिए कि रैगिंग नहीं होनी चाहिए , रैगिंग नहीं रुकी , न्यायालय ने बंद- आन्दोलन को अवैध करार दिया , सामान्य बंद तो छोडिये , लोगों ने पटरियां उखाड़ फेंकी , अनेक दिनों तक रेल नहीं चल सकी , न्यायालय खामोश रहे , क्यों ? जब कोई व्यक्ति अपना समय ख़राब करके , पैसे जुटाकर अच्छे वकील करके महीनों तक न्यायालय के चक्कर लगा पाएगा , तब न्यायालय उस पर महीनों - वर्षों तक सुनवाई करके कोई निर्णय दे पाएँगे . न्यायलयों की इसी कार्य प्रणाली के कारण पूर्व लोक सभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी कहते थे कि लोकसभा के कार्यों में न्यायालय हस्तक्षेप न करें , अब हमारे इमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कह रहे हैं कि न्यायालय अपनी हद में रहें . किसी भी सरकार के लिए न्यायपालिका , कार्यपालिका और
विधायिका (व्यवस्थापिका ) में परस्पर संघर्ष शुभ नहीं है . यह स्थिति न्यायालयों ने स्वयं उत्पन्न की है . शायद ही कोई न्यायाधीश बता सके कि भारत के न्यायालय और न्यायाधीश किसके प्रति उत्तरदाई हैं .इसीलिए अफजल गुरु को सजा देने या न देने का अंतिम निर्णय महामहिम राष्ट्रपति के नाम पर कानून के विशेषग्य उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के स्थान पर मेल-मेल के नेताओं से बने मंत्रिमंडल के पास है जिसे सब सरकार कहते हैं .
भारत के संविधान में 'सरकार' नाम कि कोई अवधारणा नहीं है . उसमें व्यवस्थापिका है, न्यायपालिका है तथा कार्यपालिका के विभिन्न अंग ( मंत्रिमंडल एवं विभिन्न संवैधानिक अधिकारी जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त, सी वी सी आदि ), राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति , राज्यपाल आदि हैं .व्यवस्थापिका , कार्यपालिका तथा न्यायपालिका ,तीनों मिलकर सरकार बनते हैं, जिसका प्रमुख राष्ट्रपति होता है तथा सरकार के सभी काम राष्ट्रपति के नाम से होंगे . मंत्रिमंडल अकेला सरकार नहीं होता है . जब सरकार के विरुद्ध कोई मुकदमा होता है तो कोर्ट में पेशी सचिव कि होती है , मंत्री सरकार हैं , तो मंत्री की पेशी क्यों नहीं होती है . यदि सरकार पर जुर्माना लगता है तो उसे न मंत्री देता है , न सचिव देता है , उसे जनता के धन से दिया जाता है . यह न्याय की कौन सी परिभाषा में आता है , समझ से परे है .
सरकार का अभिप्राय उस सम्प्रभु शक्ति से है जो अपने राज्य में अपने आदेश का पालन प्रेम से अथवा बलपूर्वक कर सकती है . यदि कोई कार्य कार्यपालिका द्वारा नियमानुसार किये जाते हैं ,न्यायालय में उसके विरुद्ध कोई वाद दायर नहीं होता है तो वह कार्य सरकार के कार्य होते हैं .यदि मंत्री या अफसर के कार्य को न्यायालय में चुनौती दे दी जाती है तो वे कार्य न्यायालय द्वारा सही करार कर दिए जाने के पूर्व वैध कार्य नहीं माने जा सकते हैं . मंत्री-अफसर द्वारा किये कार्यों को ( जैसे वर्तमान में सी वी सी थामस की नियुक्ति )न्यायालय द्वारा स्वयं 'सरकार के कार्य ' कहना ही न्यायालय एवं कार्यपालिका तथा न्यायालय एवं व्यवस्थापिका के मध्य अधिकारों के विवाद की जड़ है और इसे न्यायालयों ने स्वयं उत्पन्न किया है . न्यायालय स्वयं आँख बंद करके बैठे रहेंगे जैसा ध्रतराष्ट्र के समय हुआ था , तो महाभारत होगा ही जैसे आज अरब देशों में हो रहा है . ऐसी स्थिति निर्मित होने पर न्यायालयों का अस्तित्व भी नहीं रहता है .

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डा . ए. डी. खत्री ,
संपादक रजतपथ ,भोपाल