रविवार, 12 सितंबर 2010

छात्र-संघ के चुनाव

छात्र-संघ के चुनाव
प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी महाविद्यालयों में चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होंगे । लिंगदोह आयोग ने प्रत्यक्ष चुनाव की बात इस परंतुक के साथ की है की जहाँ क़ानून व्यवस्था की समस्या हो वहां चुनाव पूर्ववत भी कराए जा सकते हैं परन्तु ५ वर्षों में प्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था हो जानी चाहिए . सरकारी नेताओं के लिए इतना इशारा काफी है. सरकारी नेता छात्रों के चुनाव से इतने भयभीत क्यों हैं , इस पर भी विचार किया जाना चाहिए . सर्व प्रथम चुनाव के दो पक्ष हमारे सामने हैं --१, महान भ्रष्ट और खूंख्वार अपराधी चुनाव लड़कर मंत्री बन सकते हैं .माओवादी ,नक्सली और देशद्रोही आतंकवादिओं से सभी पार्टिओं के नेता चुनाव लड़ने की मनुहार कर रहे हैं .उनसे सुरक्षा व्यवस्था को कोई खतरा नहीं है। तथा २.बेचारे सीधे -साधे छात्र ,जिनसे सरकारों को गिरने का खतरा है .क्या हमारे छात्र , हमारे युवक वास्तव में इतने खतरनाक हैं ? मान लीजिए हैं तो अगले प्रश्न उठते हैं की इन्हें बचपन से खतरनाक किसने बनाया और जिस देश का युवक इतना डरावना है ,उसका बुढ़ापा कैसा होगा ? उक्त प्रश्नों के उत्तर तो समाज को , तथाकथित बुद्धिजीविओं को ढूढने ही होंगे .नहीं ढूढेंगे तो मालूम है क्या होगा ?भविष्य में कुछ उत्साही लोग अन्याय से लड़ने के लिए विद्रोहिओं से जा मिलेंगे और नामांकन से कुर्सी पर बैठने वाले अरुचि या अनिच्छा के कारण चुनाव लड़ेंगे ही नहीं .स्वाभाविक है उन परिस्तिथियों या तो गुंडे- बदमाशों का खुला राज होगा या फिर आतंकवादिओं , माओवादिओं, नक्सलीओं का देश पर कब्ज़ा होगा .इसलिए भारत के गृह सचिव श्री पिल्लई ने कहा है कि नक्सली २०५० से पहले ही कब्ज़ा कर लेंगे. उन्होंने ऐसा क्यों कहा इस पर विचार करने का समय आज किसी के पास नहीं है . लेकिन इतिहास को इससे क्या लेना देना है .समय इतिहास लिखता है आदमी नहीं .इतिहास इन करतूतों को कभी माफ़ नहीं करेगा.
मैं प्रोफ़ेसर रहा हूँ .तीस वर्ष पहले भी छात्र संघ के चुनाव होते थे । सांस्कृतिक कार्यों के समारोह रात्रि भर भी हुए । सारे प्रद्यापक -छात्र -छात्राएं ,उनके परिवार कार्यक्रम का आनंद उठाते थे । तब भी छात्र लड़ते थे परन्तु प्राध्यापकों की बात भी सुनते थे । प्राध्यापक भी छात्रों से स्नेह रखते थे । कहीं अविश्वास नहीं था। धीरे -धीरे शिक्षकों की योग्यता दर किनार करके नियुक्तिया होने लगीं और अब तो शिक्षकों -प्राचार्यों के अनेक पद भरे ही नहीं जा रहे हैं.नेताओं की करतूतों को छात्र समझ न सके, इसलिए नेताओं ने उनमें झगडे करवा कर कोर्ट केस लगवा दिए और चुनाव स्थगित करवा दिए. लेकिन नौटंकी करना नहीं भूले कि
छात्र -संघ का गठन करना है . अतः संघ के पदाधिकारिओं के मेरिट के अनुसार चयन या चुनाव होने लगे.अच्छे नम्बर पाने वाले योग्य नेता होते तो देश में कहीं तो अच्छे नम्बर वाले नेता दिखते .परन्तु यह हिंदुस्तान है जहाँ डा.मनमोहन सिंह चुनाव हार जाते है और फूलन देवी सांसद चुन ली जाती हैं.शिक्षक छात्रों का मनोनयन करके उन्हें पकड़ कर सजे हुए मंच पर बैठते हैं जैसे वे किसी रामलीला या नाटक के पात्र हों .जिन छात्रों में नेतृत्व के गुण हैं उन्हें आगे नहीं आने देंगे , उन्हें कालेज कि समस्याएँ नहीं समझने देंगे तो बड़े होकर वे देश कि समस्याओं को क्या समझेंगे ? अच्छे नंबरों से पास होने वाले तो चुपचाप देश - विदेश कि नौकरियों में लग जाएंगे .
छात्रों से दूर रहने या उन्हें दूर रखने कि बात नहीं सोचनी चाहिए .यदि कानून व्यवस्था कि समस्या है तो उसे सुधारें। कालेजों में पढने का माहौल बनाएं ,व्यवस्था का सामाजिक -मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें , भय और वैर का वातावरण न बनाएं. शासन को शायद अपनी न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं है या उसे अपने जन विरोधी कर्मो का भय है जिसके कारण वह भयाक्रांत है वर्ना कोई अपने बच्चों से भी डरता है.युवाओं को अनावश्यक रूप से आन्दोलन में मत झोंकिए .यह देश हित में नहीं होगा .ख़ुशी-ख़ुशी चुनाव करवाकर उन्हें रचनात्मक कार्यों में लगाइए.

शनिवार, 22 मई 2010

जवानों एवं पुलिस का मनोबल न गिराएँ

पुलिस पर प्राम्भ से ही अनेक आरोप लगते रहे हैं । पुलिस गड़बड़ी भी करती है। पुलिस के संरक्षण में अपराध फलते - फूलते रहते हैं । फिर भी यह सबकी मजबूरी है कि कोई समस्या आने पर आदमी पुलिस के पास ही जाता है क्योंकि न्याय का मार्ग वही है । बहुत ख़राब कह लें परन्तु अभी भी उनमे बहुत लोग ईमानदार हैं। उन्हीं के कारण सामाजिक व्यवस्था टिकी हुई है। आजकल पुलिस और सुरक्षा बलों पर जिस प्रकार आक्रमण हो रहे हैं वह खेद का नहीं , दुःख और शर्म का विषय है। दुःख का विषय इसलिए कि विभिन्न हमलों में जहाँ अनेक जवान मारे गए हैं , उनसे सहानुभूति तो दूर रही , अनेक लोग , नेता , बुद्धिजीवी , मंत्री आदि उन्हें मारने वालों का ही पक्ष ले रहे हैं और शर्म कि बात इसलिए कि यह हरकत सत्तापक्ष के लोग ही कर रहे हैं । लालू यादव का जो बयान पढने के लिए मिला है कि नक्सली हमले में आम आदमी नहीं मरे हैं और जो पुलिस की मुखबिरी करेगा , उसे वे मारेंगे ही। इसका सीधा अर्थ है कि पुलिस कि मुखबिरी करना एक गंभीर अपराध और उसके लिए हत्या भी उचित है .यदि कोई पुलिस को जानकारी नहीं देगा , अपराधियों के विरुद्ध गवाही नहीं देगा , तो पुलिस न्यायालय में अपराध कैसे सिद्ध करेगी ? अपराध सिद्ध नहीं कर पायेगी तो अपराधी छूट जायेंगे। इससे अपराधियों कि संख्या में वृद्धि होती जाएगी और आज यही हो रहा है . या तो मुकदमों का फैसला ही नहीं हो पा रहा है और होता भी है तो अपराधी छूट जाते है। जिन्हें सुप्रीम कोर्ट फांसी देती है उसे भी ये वर्षों तक सजा नहीं देते हैं। दिल्ली में बटला मुठभेड़ में जिस आतंकी को पुलिस ने मार दिया था उसके घर सहानुभूति व्यक्त करने के लिए केंद्र की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने अपने महासचिव दिग्विजय सिंह को भेजा था। दिल्ली में उन्हीं की सरकार है जो कह रही है की मुठभेड़ सही है और आतंकी को मारा गया है। यदि केंद्र की कांग्रेस सरकार जानती है की दिल्ली की कांग्रेस सरकार ने निर्दोष को मारा है और झूठ भी बोल रही है तो उसे बर्खास्त क्यों नहीं किया ? इन सब कारनामों का उद्देश्य है पुलिस का मनोबल गिराना की वह आतंकियों के विरुद्ध भविष्य में कोई कार्यवाही न करें अन्यथा वे हत्या के मामले में फँस सकते हैं ।
शुरू में लग रहा था की गृहमंत्री पी चिदम्बरम नक्सलीओं के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करने वाले हैं परन्तु अनेक जवानों के शहीद होने के बाद उनके साथिओं ने हल्ला मचाया और वह जिस प्रकार पीछे हट गए ,उससे लगता है की इस अभियान का उद्देश्य जवानों का मनोबल तोडना था की भविष्य में कोई नक्सलीओं के विरुद्ध भूल कर भी कोई कार्यवाही न करे । भारत सरकार पाकिस्तान के आतंकी संगठनों के लिए दिखावटी शोर मचाती रहती है । उसके स्वयं के सीमासुरक्षा बल को कनाडा ने बलात्कार और हत्या करने वाले संगठन के रूप में दर्ज कर रखा है और भारत सरकार ने इसका कोई विरोध भी नहीं किया । इसका भी स्पष्ट अर्थ है की भारत या तो इससे सहमत है या उसे जवानों की प्रतिष्ठा से कुछ लेना - देना नहीं है। यही कारण है कि इन जवानों द्वारा जब भी कश्मीर में कोई उग्रवादी मारा जाता है , सरकार के सहयोगी संगठन , नेता और मीडिया के लोग जवानों के विरुद्ध लामबंद होने लगते हैं । मध्य प्रदेश में अपराधों कि बढती हुई संख्या को देखते हुए गृह मंत्रालय ने अधिक थाने खोलने एवं पुलिस भरती करने तथा उन्हें आधुनिक बनाने के लिए बजट माँगा तो वित्त सचिव ने कहा कि पुलिस और थाने पहले से ही ज्यादा हैं । नए थानों कि क्या आवश्यकता है। संभव है उन्होंने यह धन की कमी के कारण कहा हो और सीधे - सीधे धनाभाव की बात कहने का साहस न कर पा रहे हों क्योंकि इससे सरकार की बदनामी होगी और उसका गुस्सा निकाल रहें हों पर इससे भी पुलिस का मनोबल तो कम होता है कि सरकार उनकी समस्याओं पर ध्यान नहीं देना चाहती है ।
मैं कानपुर में बी एस -सी में १९६७ में पढता था। मेरे मित्र के पिता एक अच्छे स्कूल में शिक्षक थे । वे बहुत अच्छे थे परन्तु थे मार्क्सवादी विचारधारा के । उनके विचार से सरकार जो पैसा गुंडे पालने में बर्बाद कर रही है, यदि उसका उपयोग विकास कार्यों पर किया जाये तो देश को बहुत लाभ होगा।उनके कम्युनिस्ट विचार से सेना , पुलिस आदि के जवान जनता के पैसों पर पलने वाले गुंडे हैं । वह कम से कम साफ़- साफ़ कहते तो थे । आज के नेता अपनी सुरक्षा तो उन्हीं जवानों से कराते हैं और जब उनके हितों कि बात आती है तो उनके विरुद्ध कार्य करते हैं। यदि नेता , मंत्री, तथाकथित बुद्धिजीवी , मीडिया, न्यायलय , मानवाधिकारियों आदि सबकी निगाह में ये दुष्ट और अनावश्यक हैं तो जवानों के सभी संगठन भंग कर देने चाहिए चाहे पुलिस हो या सेना अन्यथा सरकारें उन्हें पूर्ण सहयोग दें और जो व्यक्ति इनका मनोबल गिराने का थोडा भी प्रयास करे उनके विरुद्ध राष्ट्र द्रोह का मुकदमा चलाया जय ,वर्तमान समय कि यही मांग है।

मंगलवार, 4 मई 2010

नक्सली समस्या और समाधान

नक्सली समस्या पर देश में जिस प्रकार बहस हो रही है, उससे लगता है कि इस समस्या पर लोग गंभीर नहीं हैं या उन्हें इस के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है । मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह फरमाते हैं कि यह राज्यों का मामला है। इसमें केंद्रीय गृह मंत्री चिदम्बरम को परेशान नहीं होना चाहिए । इसके लिए वे चिदम्बरम को जिद्दी भी कहते हैं।अंततः चिदंबरम ने उनकी सलाह मान ली है ।वे इतनी जल्दी मैदान छोड़ देंगे , इसकी आशा नहीं थी। दिग्विजय सिंह इस समस्या को वर्तमान व्यवस्था का परिणाम मानते हैं जबकि वास्तविकता यह नहीं है । मध्य प्रदेश कि यह पुरानी नीति रही है कि जो कमाऊ पूत हों ,सिफारिशी हों , भले ही निकम्में हों उन्हें अच्छे और बड़े शहरों में रखो ,जहाँ वे चाहें और जो सरकारी दृष्टि में बुरे हों ,उन्हें बस्तर में पटक दो अपने आप अक्ल ठीक हो जायगी । बस्तर में जब पोस्टिंग ही निकम्मे या सताए हुए कर्मचारियों की होती रही हो तो विकास कि बात करना बेइमानी है । सरकार को इससे भी तसल्ली नहीं हुई। १९८४ में जाल बिछाया गया । सरकार ने घोषणा की कि जो कर्मचारी बस्तर जायेगा उसे ५०% अधिक डी ए दिया जायेगा । कुछ महीनों बाद वेतन पुनरीक्षण हुए । बस्तर के कर्मचारियों का डी ए नहीं बढ़ाया गया ,पुराना डी ए स्थिर कर दिया गया जो अनेक वर्षों तक उतना ही रहा जबकि प्रदेश के अन्य कर्मचारियों का डी ए बढ़ता गया .सताए हुए लोगों से बस्तर के कितने विकास की उम्मीद करेंगे ? छत्तीस गढ़ अलग हुआ तो राजनीती चली और परायों को वहां भेज दिया गया .वे सरकार का तो कुछ कर नहीं सकते थे जिसकी जैसी इच्छा हुई उसने वैसा काम किया । वहां पहली कांग्रेस सरकार ने भ्रष्टाचार के जो बीज बोए वे अब फल फूल रहे हैं । शिक्षा व्यवस्था चौपट कर दी गई ।खूबसूरत भाषण देकर युवकों को सब्ज बाग दिखाए गए और विकास के नाम पर जंगलों में छोड़ दिया गया । खदानों और जंगलों के ठेके अपने लोगों को दे दिए गए की जितना चाहो लूटो । बैलाडिला खदान का लौह अयस्क जापान को भेजा जाता था । उसकी धुलाई वहीँ की जाती थी । लौह युक्त पानी वहीँ बहा दिया जाता था जिससे वहां के लोगों को खूनी पेचिस और अन्य बीमारियाँ हो जाती थीं .लोग मरें या जियें किसी पर कोई असर नहीं पड़ता था. अब यदि सरकार के पास युवकों के लिए कोई काम नहीं है तो वे कुछ तो करेंगे ही । १९५५ में एक पिक्चर आई थी मदर इंडिया । उसमें दिखाया गया था कि एक साहूकार किसान का जम कर शोषण करता है .किसान का बेटा बड़ा होता है तो उसे एक लड़की समझाती है कि किस प्रकार उनकी सारी जमीन साहूकार ने हड़प ली और उनके मां- बाप को कितना सताया । लड़का डाकू बन जाता है और साहूकार की लड़की को उठा ले जाता है । लड़की को बचाने के लिए मां अपने बेटे को गोली मार देती है। नेताओं ने खुद भी साहूकारों के विरुद्ध खूब भाषण दे दे कर गरीबों के वोट बटोरे , सरकारें बनाईं ,जम कर लूटा। आज आप युवकों को काम नहीं दे सकते , कोई दिशा नहीं दिखा सकते तो उन्हें जो रास्ता दिखेगा ,उसी पर चलेंगे. राष्ट्रीय समस्याओं पर राजनीति नहीं करनी चाहिए । जनता पार्टी की सरकार को परेशान करने के लिए इंदिरा जी ने भिंडरावाले को आगे बढ़ाया था। उसका कितना दुखद अंत हुआ ? हमें इतिहास से कुछ तो सबक सीखना चाहिए ।
नक्सली समस्या उतनी आसान नहीं है जैसा लोग सोचते हैं और कुतर्क करते हैं। सब जानते है कि नक्सली एक राजनैतिक विचारधारा है जो माओ के सिद्धांत , 'आजादी बन्दूक की नली से मिलती है' , से निकली है , इसे वामपंथियों ने पाला - पोसा तथा पूर्व सरकारों की नीतियों ने सींचा है। वर्तमान सरकारें इसका संवर्धन कर रही हैं । आतंकवाद मिटाने के नाम पर व्यय होने वाले धन का कोई हिसाब - किताब नहीं होता है ।ऐसे कोष को कोई नेता - अफसर क्यों बंद करना चाहेगा ?इसी लिए गाँधी जी के देश में हिंसा बढती जा रही है । भय दिखाकर नक्सली ठेकेदारों से , माफिया से और जो पैसे दे सके , उससे धन लेते हैं, गरीबों से आदमी लेते हैं , नेताओं -अफसरों से समर्थन लेते है और अपना प्रभाव बढ़ाते जाते हैं । इस प्रकार इन्हें जीवन , शक्ति और प्रेरणा चीन से मिलती है तथा समर्थन और कार्य क्षेत्र भारत में मिलता है । उनके समर्थक सरकारों में जमे बैठे हैं ।लालू कहते हैं कि नक्सली आम आदमी को नहीं मारता है ,जो पुलिस कि मुखबिरी करेगा उसे क्यों नहीं मारेंगे !दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय में नक्सली विजय पर उत्सव मनाया जाता है सरकार कोई कार्यवाही नहीं करती है , इसी विश्वविद्यालय से निकले अनेक लोग आई ए एस हैं और उच्च पदों पर विरजमान हैं . उनके आतंरिक समर्थन से भी इंकार नहीं किया जा सकता है .दो वर्ष पूर्व एक वामपंथी सांसद बड़े गर्व से टी वी पर कह रहे थे कि बंगाल में भूमि वितरण बहुत अच्छा किया गया है ,इसलिए बंगाल में कोई नक्सली समस्या नहीं है नक्सलीओं की आज वामपंथियो से भले ही लड़ाई दिख रही हो ,परन्तु वामपंथी उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही करने के पक्ष में नहीं हैं . उनके विस्तार के यही कारण है ।कमजोर होने पर समझौता करना और शक्तिशाली होने पर युद्ध करना, नक्सलीओं की युद्ध- नीति का प्रमुख सिद्धांत है जब तक वे अंतिम विजय न प्राप्त कर लें । भारत की वर्तमान सरकारें धन संपत्ति बटोरने वाली योजनाएं बनाने में व्यस्त हैं । नक्सली समस्या पर विचार करने का समय किसके पास है ?यदि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर विदेशी मदद बंद करवा सकें ,शक्ति का समुचित प्रयोग कर सकें , लोगों में राष्ट्रीय भावना जाग्रत कर सकें , सामाजिक अध्ययन करके वनवासिओं की समस्याओं का उचित समाधान निकाल सकें तथा नेता गण नाकारा पलायन वाद छोड़ कर समस्या के समाधान की चुनौती साहस के साथ स्वीकार करें , तभी इस समस्या का अंत हो सकेगा।