राम राज्य की संकल्पना
राम कथा की गाथाएँ तो अनंत हैं , परन्तु राम राज्य के सन्दर्भ में प्राचीन या नवीन पुस्तकों में कोई स्पष्ट संकल्पना नहीं मिलती है. तुलसी दास जी ने लिखा है ," दैहिक , दैविक भौतिक तापा . रामराज्य काहू नहीं व्यापा .."अर्थात राम राज्य में लोगों को दैहिक ( रोग), दैविक ( प्राकृतिक आपदाएं ) तथा भौतिक (इच्छाओं की पूर्ति सम्बन्धी) कोई कष्ट नहीं होते थे .भारत के प्राचीन राजनीतिक सिद्धांतों के अनुसार प्रजा के कष्टों का कारण राजा के अन्याय एवं पाप माने जाते थे .बाल्मीकी रामायण के अनुसार रामराज्य में एक ब्रह्मण के पुत्र की मृत्यु उसके माता पिता के जीवित रहते हो गई , वह ब्राह्मण राम के दरबार में रुदन करते हुए बोला ,
"मैंने कभी झूठ नहीं बोला , किसी प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचाया . निश्चय ही यह श्री राम का कोई दुष्कर्म है , जिससे इनके राज्य में बाल मृत्यु होने लगी है .इस बालक को जीवित कर दो अन्यथा मैं अपनी पत्नी सहित इस दरबार में प्राण दे दूंगा.श्री राम को स्वामी पाकर यहाँ बाल मृत्य अटल है . राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता है , तभी ऐसी विपत्तियाँ आती हैं .राजा के दुराचारी होने पर ही प्रजा की अकारण मृत्यु होती है अथवा नगर और जनपदों में रहने वाले लोग जब अनुचित कार्य - पापाचार करते हैं और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं होता है , तभी इस तरह अकाल बाल मृत्यु होती है ....."
राम दरबार में एक सामान्य नागरिक भी अपने पूरे अधिकार के साथ सबके सामने राजा को इतनी बातें कह सकता था क्योंकि यह स्पष्ट मान्यता थी की जो राजा प्रजा के हितों का संरक्षण न करे , पाप कर्म में लिप्त हो , उसे हटा देना चाहिए .
राजा की इस आदर्श संकल्पना के कारण ही महात्मा गाँधी जी रामराज्य की बात करते थे . विनोबा जी ने रामराज्य को सरलतम शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया है ,"लोग अपने विवाद स्वयं सुलझा लें तो स्वराज्य और यदि उनमें विवाद उत्पन्न ही न हों तो रामराज्य " होगा भारत के न्यायलयों में लंबित तीन करोड़ से अधिक मुकदमें 'स्वराज्य'. को मुंह चिढ़ा रहे हैं जिसके लिए गांधीजी ने अपना जीवन समर्पित कर दिया था . फिर राम राज्य की संकल्पना का क्या होगा ?परन्तु जब रावन राज्य और कंस राज्य समाप्त हो गए , एक हजार साल की गुलामी के बाद भारत आजाद हुआ और आज विश्व में प्रतिष्ठित है तो राम राज्य की स्थापना के बारे में क्यों नहीं सोचा जाना चाहिए ? यदि राम राज्य के मूल तत्वों को समझ लिया जाय , वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार उसकी व्याख्या की जाय तो इसे लागू करने के सफल प्रयास भी किये जा सकेंगे .
राजा और मंत्रियों में त्याग , पवित्रता , साहस , ज्ञान,एवं सुशासन की योग्यता ,तो आदिकाल से सर्वत्र मान्य रही है परन्तु श्री राम ने राजा होते हुए भी लाकतंत्र का जो रूप प्रस्तुत किया है वह शेष विश्व साहित्य की कल्पना से भी परे है .
रामराज्य के मुख्य तत्व हैं ; १. सत्यता एवं विश्वसनीयता अर्थात जो वायदा किया जाय , वचन दिया जाय , उसका पूर्ण रूपेण पालन करना . २. लोगों की इच्छा ज्ञात करना : वे अपने गुप्तचरों को ही नहीं अपने सभासदों को भेजते थे कि वे लोगों की इच्छाओं को जानें . या राजा के कार्यों कि निंदा करते हों तो उन कारणों को जानना ३. लोक भावनाओं के अनुसार शासन चलाना .जब सामान्य नागरिकों में सीता जी के प्रति अविश्वास उत्पन्न हो गया और सीता जी को रखने के लिए राम कि आलोचना करने लगे तो उन्होंने लोकेक्षा और सामाजिक परम्पराओं का सम्मान करते हुए सीता जी का तत्काल परित्याग कर दिया . तथा ४. आतंकवाद का यथा शीघ्र सफाया करना .
वर्तमान युग लोकतंत्र का है इसमें तो शासन अनिवार्य रूप से लोगो कि सहभागिता और लोकेक्षा के अनुसार ही चलना चाहिए .व्यक्तिगत इच्छाएं तो स्वार्थ प्रेरित होती हैं .इसलिए प्रसिद्द राजनीति शास्त्री रूसो ने सामान्य इच्छा या लोकेक्षा का सिद्धांत प्रतिपादित किया .उनके अनुसार लोकेक्षा ही विधि है अतः शासन लोगों कि सामूहिक इच्छा के अनुसार ही चलाया जाना चाहिए .जर्मी बेन्थम ने लोकेक्षा को अधिकतम उपयोगिता अर्थात जिससे लोगों का अधिकतम लाभ हो , के रूप में स्वीकार किया है . बोसंके ने भी समाज एवं राष्ट्र की वास्तविक इच्छा की अवधारणा प्रस्तुत की है .
उक्त व्यवस्था लागू करने के लिए युवा छात्रों के माध्यम से लोगों कि इच्छा जानना तथा समाज कि आवश्यकताओं को प्राथमिकता के आधार पर पहचानना , विद्वानों द्वारा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान की नीति प्रतिपादित करना , सरकार द्वारा उसके आधार पर योजनाएं बनाना तथा प्रशासन द्वारा उन्हें लागू करना होगा यदि उसमें कहीं बढ़ा आती है या विवाद उत्पन्न होता है तो न्यायालयों को स्वतः पहल करके उसे शीघ्र दूर करना होगा . यही लोकतंत्र होगा ,यही रामराज्य होगा.