स्वामी विवेकानंद ने कहा है, ’’ कोई देश उसी अनुपात में विकास करता है जिस अनुपात में वहां की जनता में शिक्षा और बुद्धि का विकास होता है .” .....”जिस अध्ययन द्वारा मनुष्य की संकल्प शक्ति का प्रवाह संयमित होकर प्रभावोत्पादक हो सके ,उसी का नाम शिक्षा है .“ वेदांत दर्शन के अनुसार बालक / बालिका के में अनन्त ज्ञान, अनन्त बल तथा अनंत व्यापकता की शक्तियां विद्यमान हैं .शिक्षा द्वारा इन्हीं शक्तियों की अनुभूति तथा विकास किया जाना चाहिए . विवेकानंद ने स्पष्ट शब्दों में कहा है ,” शिक्षक के प्रति श्रद्धा, विनम्रता, सन तथा समर्पण की भावना के बिना हमारे जीवन में कोई विकास नहीं हो सकता है .” .... “ यदि देश के बच्चों की शिक्षा का भर फिर से त्यागी और नि:स्पृह व्यक्तियों के कन्धों पर नहीं आता तो भारत को दूसरों की पादुकाओं को सदा के लिए ढोते रहना होगा .” वे धर्म को शिक्षा की आत्मा मानते थे . पाठ्यक्रम के अन्य विषय मन तथा बुद्धि का परिष्कार करते हैं परन्तु धर्म ह्रदय को समुन्नत करता है . ह्रदय ज्ञान का प्रकाश है . ईश्वर ह्रदय के माध्यम से ही हमें सन्देश देता है . अतः ह्रदय का परिष्कार करो . परन्तु धर्म शिक्षा के पूर्व वे युवकों को सबल बनाने, उनमें नैतिक बल विकसित करने, सिंह के समान साहसी बनाने तथा चरित्र गठन पर अधिक जोर देते हैं .
महात्मा गाँधी शिक्षा का सर्वोच्च ध्येय चरित्र निर्माण तथा व्यक्ति में उत्पादकता की भावना का विकास मानते थे . वे कहते हैं कि सभी बालकों में सामान दैवी शक्ति विद्यमान है परन्तु प्रत्येक का व्यक्तित्व विशिष्ट एवं विलक्षण होता है जिससे वह समाज को अपना योगदान विभिन्न प्रकार से देता है . यह शिक्षक ही होता है जो उसकी विलक्षणता को पहचान कर उसे व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करता है . अतः समाज में शिक्षक की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है .वे कहते हैं कि आचार्य तथा अध्यापक गण पुस्तकों के पृष्ठों से चरित्र नहीं सिखा सकते . चरित्र निर्माण तो उनके जीवन से ही सीखा जा सकता है . गुरु होने के लिए विद्यार्थी से आत्मिक सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है अर्थात् शिक्षक उसकी रुचियों, योग्यताओं एवं आवश्यकताओं को समझ कर उन्हें उचित शिक्षा दे . वे अध्यापन कार्य में समर्पण भाव चाहते हैं तथा वेतन एवं अध्यापन कार्य को परस्पर मिलाना उचित नहीं मानते . उनके अनुसार शिक्षा व्यर्थ है यदि उसका निर्माण सत्य एवं पवित्रता की नींव पर नहीं हुआ है . उनकी दृष्टि में पवित्रता के बिना सब व्यर्थ है, व्यक्ति चाहे कितना भी विद्वान् क्यों न हो जाये .
भारतीय शिक्षा शास्त्रियों में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है . वे कहते है कि प्रत्येक छात्र को प्रकृति की ओर से अनन्त मानसिक शक्ति प्राप्त हुई है जिसका अल्पांश ही जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति में व्यय होता है . उसके पश्चात् उसकी विपुल शक्ति अवशिष्ट रहती है . इसका उपयोग सृजन के लिए किया जाना चाहिए . यह अतिरिक्त मानसिक शक्ति व्यक्ति को सृजन की विभीन्न दिशाओं में कार्य करने के लिए उत्प्रेरित करती है . शिक्षा का प्रमुख कार्य इस सृजन शक्ति का विकास करना तथा उसे उचित दिशा प्रदान करना है . विद्यालय स्तर पर तो सभी विषय अनिवार्य होते हैं परन्तु महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर चुने हुए विषय ही पढ़ने होते हैं . अतः उच्च शिक्षा की प्रमुख संकल्पना विद्यार्थियों की रूचि को समझना एवं तदनुसार उन्हें शिक्षा प्रदान करना है ताकि उनकी क्षमताओं का समाज हित में अधिकतम लाभलिया जा सके .
गीता के कर्मयोग की व्याख्या करते हुए विनोबा भावे ने कहा है कि जब व्यक्ति मन की रूचि के अनुसार कार्य करता है तो उसका मन और शरीर एक ही दिशा में कार्य करते हैं , मन और शरीर का योग हो जाता है जिससे व्यक्ति बिना तनाव के अधिक कार्य करते हुए आनंद की अनुभूति करता है .
शिक्षा एवं कार्य के उपर्युक्त प्रतिपादित सिद्धांतों के आधार पर विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि भारत में उनके विपरीत कार्य किया जाता है और विदेशों में उनका यथा संभव पालन किया जाता है जिसके कारण भारत के शिक्षा संस्थान विदेशी संस्थानों से बहुत पीछे हैं . म.प्र. में तो महाविद्यालय के प्राध्यापकों को बाबूगीरी करने का प्रशिक्षण दे दिया गया है . प्राध्यापक अपनी इच्छा एवं रूचि के विपरीत कुढ़ते हुए सारा समय रिकार्ड बनाने में लगाते हैं क्योंकि म. प्र. शासन ने उनसे पढ़ने- पढ़ाने का कार्य छीन लिया है . प्रदेश के अनेक महाविद्यालयों में शिक्षक हैं ही नहीं परन्तु विद्यार्थी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होते जाते हैं . इससे शासन ने यह सफलता पूर्वक सिद्ध कर दिया है कि शिक्षा का प्रमाण पत्र देने में शिक्षक, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, पुस्तकों आदि की कोई आवश्यकता नहीं है . विद्यार्थियों को महाविद्यालय आना और परीक्षा देना इसलिए अनिवार्य रखा गया है कि आने वाले छात्रों से शुल्क लेना है और उनके नाम पर विश्व भर के वित्तीय संस्थानों से उधारी लेनी है नहीं तो खायेंगे क्या ? अभी तो प्रदेश सरकार ने उच्च शिक्षा के लिए मात्र १००० करोड़ रूपये के कर्ज का जुगाड़ किया है, और प्रयास जारी हैं . छात्र संख्या बढ़ाने पर इसलिए जोर दिया जा रहा है ताकि कर्ज देने वालों को बताया जा सके कि हमारे इतने सारे बच्चे हैं जो जीवन भर आपका कर्ज चुकाते रहेंगे . शासन बहुत अच्छी शिक्षा व्यवस्था कर रहा है इसको सिद्ध करने के लिए प्राध्यापकों से बनवाये गए रिकार्ड वक्त जरूरत बहुत काम आते हैं .
महाविद्यालयों से निकलने वाले विद्यार्थियों की योग्यता की इसलिए आवश्यकता नहीं होती है कि उन्हें कौन सा काम करना है . सरकार जमीन, घर, राशन, पानी, बिजली सब तो मुफ्त में दे ही रही है . अनेक प्रदेश सरकारें तो टीवी, फ्रिज, साइकिल, लैपटाप , मिक्सी आदि भी खुले हाथों से बाँट रही हैं . सरकारी नौकरियाँ उन्हें देनी नहीं हैं और यदि शिक्षक ही बन गए तो उन्हें राशन ढोना, खाना बनवाना और बच्चों को खिलना ही तो है, कौन सा पढ़ाना है .विद्यालय के छात्रों को तो विद्यालय आने की आवश्यकता भी नहीं है . डिग्री लेने वाले लोगों को यदि राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री के नाम भी न पता हों, ठीक से पुस्तकें भी न पढ़ पाते हों, गणित के प्रश्न भी न हल कर पाते हों तो क्या फर्क पड़ता है . गुरुजिओं के नियमितीकरण के लिए ली गई परीक्षा में यही परिणाम सामने आये थे .ऐसे शिक्षक छात्रों के सामने कौन सा आदर्श प्रस्तुत करेंगे और उनके कैसे चरित्र का निर्माण करेंगे ?
म.प्र. समेत देश के प्राय: सभी प्रान्तों में महाविद्यालयों में तदर्थ नियुक्तियां ही की जा रही हैं . कार्ल मार्क्स ने अपना शोषण का सिद्धांत श्रमिकों के लिए लिखा था, माओ ने उसमें सुधार करके किसानों को जमींदारों के चंगुल से छुड़ाया . वे बेचारे क्या जानते थे कि भारत में अच्छे पढ़े लिखे लोगों का समाजवाद के नाम पर चलने वाली कल्याणकारी सरकारें स्वयं क्रूरता पूर्वक शोषण करेंगी . म. प्र. में दूसरी समस्या विषयों की है . विश्वविद्यालय विषयों के सीमित समूह बनाते हैं जिससे विद्यार्थी अपनी पसंद के विषय नहीं ले पाते हैं . ऐसे शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था के प्रति विद्यार्थियों या समाज में क्या श्रद्धा होगी . भारत में दूसरी सबसे बड़ी समस्या आरक्षण की है . अच्छे छात्रों को जाति-धर्म के नाम पर उच्च शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश नहीं मिलता है अथवा उनके रूचि के विषय नहीं मिलते हैं परिणाम स्वरूप ऐसे अनेक छात्र विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए चले जाते हैं वे प्रत्येक वर्ष एक लाख करोड़ रूपये से अधिक राशि वे विदेशों में व्यय करते हैं तथा उनमें से अधिकांश युवक वहीँ बस जाते हैं अर्थात भारत को बौद्धिक पलायन के कारण भारी क्षति उठानी पड़ती है . सरकार धन का रोना तो रोती रहती है परन्तु देश से धन एवं बुद्धि का पलायन रोकने के प्रयास करना तो दूर , उसे और प्रोत्साहित करती रहती है . इतने धन में तो अनेक अच्छी संस्थाएं खुल सकती हैं यदि सरकार में इच्छा शक्ति हो .परन्तु महापुरुषों के विचारों के विपरीत काम करने वाली सरकारों से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है ?
हमारे देश के भौतिक शास्त्री रामकृष्ण वेंकट रमण को अपनी रूचि के विषय के उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाना पड़ा . वहां उन्हें रसायन शास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला . क्या भारत में एक विषय में उपाधि प्राप्त व्यक्ति को दूसरे विषय में अध्ययन की अनुमति दी जा सकती है ? कभी नहीं . अमेरिका के अनेक विश्वविद्यालयों में नोबेल पुरस्कार प्राप्त विद्वान अध्यापन करते हैं . स्वाभाविक है छात्र उनकी लगन एवं ज्ञान के प्रति अपार श्रद्धा रखते हैं . अतः उनके सानिध्य में वे अच्छे शोध कार्य करते हैं . वहां पर अनेक पूर्व छात्र अच्छी नौकरी लगने के बाद या व्यवसाय जमाने के बाद अपने पूर्व संस्थानों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार नियमित रूप से सहयोग राशि देते हैं जिससे वे संस्थान सतत रूप से स्तरीय शिक्षा देने में सक्षम बने हुए हैं . आई आई टी के पूर्व छात्र भी जो विदेशो में कार्य रत हैं, अपने संस्थानों को कुछ सहयोग राशि भेजते रहते हैं . भारत में स्वतंत्रता के बाद से आज तक लाखों लोगों को जनता के धन पर जीवन की सभी सुविधाओं को देते हुए उच्च शिक्षित किया गया , उन्हें अच्छे-अच्छे पद एवं वेतन भी दिए गए परन्तु उनमे से शायद ही किसी ने अपने पूर्व शिक्षण संस्थान को कोई राशी दी हो जिससे भविष्य में आने वाले जरूरत मंद लोगों की सहायता की जा सके .
म. प्र. की सरकार ने एक योजना बनाई कि सरकारी विद्यालयों को पूँजी पति दान दें और भवन निर्माण आदि में सहयोग करें . कोई भी आगे नहीं आया . स्वयं नेता –अधिकारी- धनवान लोगों ने अपने धन शिक्षण संस्थाओं में तो लगाए परन्तु निजी संस्थाओं में लगाए ताकि शिक्षा का व्यवसाय कर सकें और खूब धन कमा सकें . पता नहीं किस आदर्शवादी ने यह विचार दिया था . सरकारी विद्यालयों या अन्य संस्थाओं ने ऐसा कोई प्रतिष्ठा का काम किया है या उनके मंत्री – नेता – अधिकारीयों ने ऐसा कोई कार्य किया है जिसे देख कर शिक्षा व्यवस्था के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो ? भारत में तो सरकारों का एक ही रूप सामने आता है और वह है भ्रष्टाचार का . गाँधी जी कहते हैं शिक्षा देने का कार्य त्याग का कार्य है . शिक्षक को समर्पित भाव से अध्यापन करना चाहिए . आज ऐसे कितने शिक्षक होंगे ? विदेशों में और हमारे देश में यही मौलिक अंतर है कि वे महापुरुषों एवं विद्वानों के विचारों के अनुसार कार्य करते हैं, हम उनकी फोटो सामने रख कर आरती उतारते हैं, उनकी जय-जयकार करते हैं, लोगों में उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न करते हैं कि वे महान थे और काम सारे उलटे करते हैं . आज देश का यही संकट है . यही चरित्र का संकट है जिसके अच्छा होने की बात महापुरुष बार – बार कहते रहे हैं . जब रक्षक ही भक्षक बन बैठे तो देश बेचारा क्या करे ? लोग अपनी वेदना किससे कहें ?
प्रकृति की यह विडंबना ही कही जाएगी कि ऐसी व्यवस्था में भी कुछ शिक्षक अच्छा पढ़ा देते हैं, कुछ छात्र अच्छे से पढ़ लेते हैं और इतने व्यक्ति मिल जाते हैं जिनसे देश चलता जा रहा है .
शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक स्तर पर मनुष्य की आतंरिक शक्तियों का विकास करना है . परन्तु उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सभी विषय आते हैं , वह चाहे आर्थिक संकट हो या आतंकवादी एवं विदेशी हमला . उच्च शिक्षा की संकल्पना का अभिप्राय उस शिक्षा से है जो व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करे, उसे गौरव पूर्ण, गरिमा पूर्ण जीवन यापन के लिय सक्षम बनाए, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे, राष्ट्र को समृद्ध करे तथा अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करने में समर्थ हो . हमारे नेताओं एवं अधिकारीयों के द्वारा अच्छे विचारों से घृणा करने का ही परिणाम है कि देश में नेता आतंकवाद और विदेशी हमलों के समय भी एकमत नहीं हो पाते हैं . अनेक नेता तो ऐसे कुतर्क करते हैं जैसे वे विदेशी हमलावरों या व्यापारियों के वेतन भोगी एजेंट हों . दुनिया में संभवतः भारत ही इकलौता देश है जहां राष्ट्रीय आपदा के समय भी नेता-अधिकारी पहले निजि स्वार्थ देखते हैं तथा राष्ट्रीय हितो के विरुद्ध बेझिझक काम करते रहते हैं . व्यवस्था यहाँ तक बिगड़ चुकी है कि उच्च प्राशासनिक अधिकारी भी अब असहाय होने लगे हैं . भारत में सबसे अधिक युवा हैं , यह कहने मात्र से देश को उसकी ऊर्जा का लाभ नहीं मिल जायेगा . उसके लिए शिक्षा को सुधारना होगा . तभी अच्छे नागरिक बनेंगे और अनेक समस्याएं स्वयं विलुप्त हो जांयगी .
भोपाल में एक फार्मेसी की छात्रा ने रैगिंग से त्रस्त होकर आत्म हत्या कर ली थी . रैगिंग रोकने के लिए सरकार ने नियम बनाए हैं , उच्चतम न्यायलय ने कठोर निर्णय लेने की बात कई बार कही है , फिर भी रैगिंग क्यों नहीं रुक रही है ? यदि संस्थानों में अध्यापन कार्य होता रहे तो छात्र-छात्राएं उसमें व्यस्त रहें . यदि महाविद्यालयों में छात्र संघ के चुनाव होते रहते तो अनेक प्रत्याशी नए छात्रों को अपने पक्ष में करने के लिए उन्हें संरक्षण देते, रैगिंग होती ही नहीं .परन्तु मनमानी लूट के लिए छात्र संघ बंद कर दिए गए , पढ़ाई होती नहीं , फ़िल्में , मीडिया और नेट हिंसा और सेक्स परोस रहे हैं तो अपराध नहीं होंगे तो क्या होगा ? फिर अपराध का स्वरूप कुछ भी हो सकता है .